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बड़े बड़े लोग भी छोटे होते हैं —

दबंग आवाज
दबंग आवाज
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बात की शुरूवात नाती से करता हूँ | एबरपटली किसी बड़े आदमी से शुरू करूँगा तो मामला प्रिजुडिस होने की संभावना ज्यादा है | जबसे उसने स्कूल जाना शुरू किया है , याने , करीब तीन वर्ष की आयु से वह वीक एंड में मेरे याने अपने नाना , नानी के साथ ही रहता है | तीन वर्ष पूर्व परिवार में एक सदस्य और बढ़ गया याने मेरे बेटे की शादी के बाद , उसकी मामी परिवार में जुड़ गयी | शुरुवात में उसे लगा कि कहीं मामी नाम की इस सदस्य के आने से हम लोगों का प्यार उसकी तरफ कम तो नहीं होगा और उसके अंदर एक फ्रस्ट्रेशन डेवलप हुआ , किन्तु कालान्तर में मेरी पुत्रवधु के संगत और प्रेमपूर्ण व्यवहार से वह फ्रस्ट्रेशन दूर हो गया |

अब बड़ी लड़की का वह बेटा , जिसे हम प्यार से डिम्पू कहते हैं , नौ वर्ष का हो गया है | उसके बाद वाली बच्ची की बेटी चार वर्ष की है और मेरे बेटे की बेटी दो वर्ष की है | मेरी कोई भी मंशा मेरे परिवार का इतिहास बताने की या विवरण बताने की नहीं है | समस्या यह है कि नौ वर्ष का डिम्पू चार वर्ष की सोना और दो वर्ष की अनी से बराबरी करता है | उसे , उसके माँ-बाप , में स्वयं या मेरी पत्नी , उसके मामा -मामी कितना भी समझाएं , पर , उसे वही गेंद चाहिये रहती है जो सोना या अनी के पास होती है | ज्यादा समझाने पर , वह तर्क देता है कि वह इसलिए ऐसा करता है कि बचपन में उसके साथ भी ऐसा ही हुआ होगा | उसके पास एक दो मिसालें हैं , जब वह छोटा था तो किसी घर आये मेहमान के थोड़े बड़े बच्चे के रोने पर , उसका खिलोना उस बड़े बच्चे को दे दिया गया | यानी , जो तकलीफ उसे हुई , वही तकलीफ वह अपने से छोटे अन्यों को देना चाहता है | जहां तक मेरे आब्जरवेशन का सवाल है , यह तकलीफ केवल डिम्पू के साथ नहीं है , इस समाज को लीड करने वाले बड़े बड़े नेताओं , संस्थाओं के मुखियाओं और समाज के अग्रणी सभी लोगों के साथ यह समस्या और भी विकराल रूप में है |

उदाहरण के तौर पर पच्चहतर (75) वर्ष का एक जिम्मेदार केन्द्रीय मंत्री अगर आज यह कहता है कि वह जब 10वीं कक्षा में था तो चिमनी की रोशनी में पढ़ा था और स्कूल के लिए 10 किलोमीटर आना-जाना करता था , इसलिए गरीबों के प्रति उसकी संवेदनशीलता पर आज कोई उंगली नहीं उठाई जानी चाहिये , चाहे आज शहर या गाँव में बिजली होने के बावजूद और बिजली का बिल नियमित पटाने के बावजूद , कोई विद्यार्थी चिमनी में भी इसलिए नहीं पढ़ पाए ,क्योंकि , केरोसीन या तो मिलेगा नहीं ,और अगर मिल भी गया तो उसकी कीमत बिजली से कई गुना ज्यादा पड़ती है | जहां तक स्कूल आने-जाने के लिए 10 किलोमीटर आना-जाना करने का सवाल है , वह आज भी लाखों की संख्या में ग्रामीण क्षेत्रों में बच्चे कर रहे हैं | यहाँ तक कि कालेज की पढ़ाई करने के लिए , क्या गाँव और क्या शहर , दोनों जगह , लड़के और लड़कियां , दोनों , साईकिलों से 20-30 किलोमीटर से अधिक , और ट्रेन या बस से 50-60 किलोमीटर से अधिक की यात्रा करते हैं | वह नेता या जिम्मेदार मंत्री 1950 के भारत और आज के भारत के बीच का अंतर भुलाकर , आपसे केवल इसलिए सहन करने को या ज्यादा स्पष्ट कहें तो उसकी नीतियों की खामियों को नजरअंदाज करने के लिए कह रहा है ,क्योंकि , उसके अनुसार , वह स्वयं किसी जमाने में उस परिस्थिति से गुजर चुका है | यहाँ वह 1950 के भारत और 2010 के भारत के बीच के अंतर को भुलाकर शुद्ध रूप से उसी ईर्ष्या का शिकार हो जाता है कि जब मुझे नहीं मिला तो तुमको आकांक्षा ही नहीं रखनी चाहिये | यह एक प्रकार से अपने कष्टों के लिए , बाद की पीढ़ियों को कष्ट में रखकर मलाल निकालने की कार्यावाही है |

इसी तरह प्रधानमंत्री जैसे पद पर आसीन व्यक्ति , जब यह कहता है कि देश के प्रति उसकी संवेदनाओं को इसलिए नहीं झकझोरना चाहिये कि वह ११ या १३ वर्ष की आयु में लाहौर से भारत आया था और उसके नाना ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लिया था ,तो आश्चर्य होता है | यह देशभक्ति की किस तरह की भावना है कि हम हमारे आज को भूलकर केवल पूर्वजों की दुहाई देकर अपना बचाव करना चाहते हैं | क्या राष्ट्रभक्ति या देशभक्ति किसी पूंजीपति की विरासत के सामान है कि उसे आने वाली कई पीढियां अपने कर्तव्यों का निष्पादन समुचित ढंग से किये बिना खाती रहेंगी |

आज के भारत की विडम्बना यह है कि यह ट्रेंड सर्वोच्च पदों से लेकर छोटे स्तर तक एक समान रूप से मौजूद है | एक आईएएस या आईपीएस आफिसर इसलिए करोड़ों रुपये की दौलत कमाना चाहता है कि किसी जमाने में इस योग्यता को प्राप्त करने के लिए उसने बहुत मेहनत की है या उसके माँ बाप ने उसे इस मुकाम तक पहुंचाने के लिए लाखों रुपये खर्च किये हैं | राजनीतिज्ञ इसलिए करोड़ों रुपये बनाना चाहतें हैं कि उन्होंने इस मुकाम तक पहुँचने के लिए बहुत संघर्ष किया है और वे नहीं चाहते कि उनकी बाद की पीड़ियाँ इस दौर से गुजरें | इसके अतिरिक्त आज राजनीति में और वह भी चुनावी राजनीति में इतना पैसा इन्वाल्व है कि वे आने वाले कई दशकों के लिए दौलत जमा करके रख लेना चाहते हैं | यही स्थिति हम मजदूर संघठनों के अंदर देखते हैं | मजदूर संघठनों के अंदर सामंती और पूंजीवादी प्रवर्तियों के पीछे भी यही कारण रहता है कि मजदूर नेताओं के अंदर यह भावना घर कर जाती है कि शुरुवाती संघर्ष के बाद उन्हें ,यह हक मिल गया है कि वे अब स्वयं ऐश की जिंदगी जियें और साथ ही साथ अपने बच्चों के भविष्य को भी सँवारे | यही कारण है कि लगभग सभी बड़े अखिल भारतीय एवं मंझोले कद के ट्रेड यूनियन नेताओं के बच्चों को आप विदेश में सेटिलड पाओगे या अव्वल दर्जे किसी मल्टीनेशनल में इन्फ्लुएंस के जरिये नौकरी करते पाओगे | चाहे उन स्वायत संस्थाओं को लीजिए जहां चुनाव होता है या उनको लीजिए जहां लोगों को मनोनीत किया जाता है ,आपको परिस्थिति एक सी ही मिलेगी |

आज के भारत में समाज के प्रति मिशन या सेवा भावना रखकर काम करने वाले लोग आपको मिलेंगे ही नहीं | यदि कोई मिल भी गया तो संभालकर ही विश्वास करें , क्योंकि उसके धोखेबाज निकलने की ही संभावनाएं ही अधि़क होंगी | आज परिस्थिति यह है कि समाज के जो अगुआ हैं , उनके हिस्से में देश का जितना भी हिस्सा आ रहा है , वे उसे लूटने में लगे हैं | जिन्हें हम बड़ा समझते हैं , दरअसल , वे उतने ही छोटे होते हैं | इसीलिये मैं कहता हूँ कि बड़े बड़े लोग भी बहुत छोटे होते हैं |

अरुण …

Posted by AK SHUKLA at 1:03 PM Email This BlogThis! Share to Twitter Share to Facebook Share to Google Buzz

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