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क्रिकेटर्स को भारत रत्न नहीं देना चाहिये —

दबंग आवाज
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जबसे सचिन तेन्दुलकर ने साउथ अफ्रिका में दोहरा शतक बनाया है , उन्हें भारत रत्न देने के लिये जबर्दस्त लाबिंग मीडिया की पहल परचल रही है | इस लाबिंग में कुछ खेल विशेषज्ञों , पुराने
समकालीन क्रिकेटरों के साथ साथ राजनीतिज्ञों का जुड़ना आश्चर्य में डालने वाला रहा है | सचिन तेंडुलकर को भारत रत्न देने की सिफारिश महाराष्ट्र सरकार ने तो की ही , लोकसभा तथा राजसभा में भी सांसदों ने ऐसी मांग केंद्र सरकार से किये | सचिन स्वयं इस सम्बंध में अपनी लालसा को छुपा नहीं पाते हैं | भारतीय वायु सेना में ग्रुप कैप्टेन की मानद उपाधी ग्रहण करने के समारोह के समय यहलालसा पुनः उजागर हुई है | बहरहाल , सचिन ही क्यों , कोई भी स्वयं को योग्य समझने वाला व्यक्ति यदि ऐसी आकांक्षा या लालसा रखता है तो उसमें गलत कुछ भी नहीं है | पर , सचिन तेंडुलकर ही क्यों , आज की व्यवसायिक क्रिकेट से जुडे किसी भी व्यक्ति को क्या भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान देना चाहिये , यह जरुर गम्भीर और विचारणीय प्रश्न है ?

एक समय था , जब क्रिकेट को भद्र जनों का खेल कहा जाता था | पर यह भद्र जनों का खेल कब रहा , यह बताना बहुत मुश्किल है | हो सकता है , इसे भद्र जनों का खेल इसलिये कहा जाता रहा हो क्योंकि उस दौरान भद्र जनों के पास ही इतना समय रहता हो कि वे एक दिन विश्राम का मिलाकर छै दिनों का टेस्ट मेच खेल सकते हों | एक श्रंखला में न्यूनतम पांच मेच खेले जाते थे | दो टेस्ट मेच के बीच का अंतराल मिलाकर , पूरी श्रंखला के लिये दो माह से उपर का समय लगता था | इतना समय तो भद्र जन ही निकाल सकते थे | इसके अलावा इसमें कोई भद्रता कभी नहीं रही | यदि रही होती तो इंग्लेंड-आस्ट्रेलिया एशेज श्रंखला के दोरान बरसों पहले कुख्यात बाडी लाईन प्रकरण नहीं हुआ होता | हो सकता है कि हाकी – फुटबाल और अन्य खेलों के उपर अपनी सुप्रिमेसी , जो आज भी कायम है , बनाने के लिये भद्रजनों ने ही इसे भद्रजनों के खेल के नाम से प्रचारित किया हो | बहरहाल क्रिकेट आज भद्रजनों का नहीं भ्रस्टजनों का खेल है | इसमें भद्रता किंचित मात्र भी नहीं है , किंतु भ्रस्टता से यह लबालब भरा हुआ है | क्रिकेट खेलने वाले देशों में से कोई भी एक देश ऐसा नहीं है , जिसके खिलाड़ियों पर पैसा खाकर , ऐसा , खेलने के आरोप नहीं लगे हैं , जिससे खेल का परिणाम प्रभावित होता है | इंग्लेंड , आस्ट्रेलिया जैसे देश हैं , जहाँ क्रिकेट पर सट्टेबाजी के लिये बकायदा कंपनियां खुली हुई हैं और नामी गिरामी क्रिकेट खिलाड़ियों का उनसे व्यावसायिक रिश्ता है | जिस बात पर गौर किया जाना चाहिये वह यह है कि क्रिकेट में सट्टेबाजी कहीं भी क्यों न हो , भारत का नाम उसमें अवश्य जुड़ा रहता है | 1998 में आस्ट्रेलियन खिलाड़ी शेन वार्न और मार्क वाघ ने खुलासा किया था कि 1994 के टूर्नामेंट के दोरान उन्होनें एक इंडियन बुकी को जानकारियां उपलब्ध कराईं थीं | भारत , श्रीलंका , पाकिस्तान के खिलाड़ियों पर सट्टेबाजों से पैसा लेकर खेल को प्रभावित करने के आरोप नये नहीं हैं | यहाँ तक कि कपिल देव , जो 1983 में एक दिवसिय क्रिकेट का विश्वकप जीतकर लाये , उन पर भी मनोज प्रभाकर ने सट्टेबाजों से पैसा लेने का आरोप लगाया था |

भारत में क्रिकेट लोकप्रियता से उपर उठकर लगभग एक जुनून है | इसे जुनून बनाने में उस ईलाक्ट्रानिक मीडिया का बहुत बड़ा हाथ है , जो आज बिना सोचे , विचारे किसी भी मुद्दे पर न केवल जनभावनाओं बल्कि सरकारों सहित देश की अन्य सभी लोकतांत्रिक संस्थाओं को अपने अनुसार चलाने की कोशिश में लगा रहता है | किंतु , फुटबाल सोसर के समान क्रिकेट पूरी दुनिया में नहीं खेला जाता है | भारत रत्न , कला , साहित्य , विज्ञान एवं टेकनालाजी तथा उच्च कोटी के लोक कार्यों के लिये देने का प्रावधान है | क्रिकेट भारत में उद्योग की सीमा से आगे बड़कर धंधे में परिवर्तित हो चुका है और क्रिकेट खिलाड़ी विज्ञापनों और फेशन परेडों से कमाई करने के अलावा करोडों रुपयों में खुद को बेच रहे हैं | इंडियन प्रीमियर लीग इसका सबसे बड़ा उदाहरण है , जहाँ भारत के बड़े और नामी क्रिकेट खिलाड़ी , माने हुए विदेशी खिलाड़ियों के साथ , अपने मालिकों को खुश करने के लिये सरकस के शेर , भालू , बन्दर के समान करतब दिखा रहे हैं और असफल होने पर मालिकों से झिड़की भी खा रहे हैं | क्रिकेटर्स का कार्य किस श्रेणी में आयेगा ? जिन विज्ञापनों में किसी भी दौर के क्रिकेट खिलाड़ियों ने काम किया है , उनमें से ढेरों ऐसे हैं जो आम देशवासियों और विशेषकर बच्चों और युवाओं के लिये अत्यंत हानिकारक हैं | व्यावसायिक क्रिकेट , क्रिकेट में भ्रष्टाचार , सर्कस क्रिकेट , विज्ञापनों में काम , रेम्प पर केट वाक ,क्रिकेटर्स के किस काम को और किस उपलब्धी को लोक कार्य की श्रेणी में रखा जायेगा ? इसलिये ,क्रिकेटर्स को भारत रत्न से जितना दूर रखा जाये , भारत रत्न के लिये उतना ही अच्छा होगा |

अरुण कांत शुक्ला

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