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समरथ को नहीं दोष गोसाईं — ( एक विनम्र जबाब )

दबंग आवाज
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मैं आदरणीय मिश्र जी का ह्रदय से आभारी हूँ , जिन्होंने मेरी पोस्ट “ देश में अमन चैन बनाये रखने की कीमत मत मांगो ” के जबाब में पूरी एक पोस्ट “ अयोध्या फैसला दुर्भाग्यपूर्ण नहीं है ” लिखी है | मेरी आलेख की कुछ बातों का उल्लेख करते हुए उन्होंने कुछ प्रतिक्रियाएं दी हैं | मुझे आदरणीय मिश्र जी की पोस्ट पढ़ने के बाद महसूस हुआ कि वे स्वयं के आग्रहों से इतने घिरे हुए हैं कि वे मेरे आलेख के केन्द्रीय विचार को नजरअंदाज कर , आस्था और अयोध्या में विवादित स्थल ही रामजन्म भूमी है , के सवालों में ही उलझकर रह गए | मैं आदरणीय मिश्रजी का इसके लिये भी आभारी हूँ कि उन्होंने मान्यवर आर.एन.शाही जी की टिप्पणी पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि “लेख को लिखने के 24 घंटे बाद मैं मानता हूँ कि मेरी भाषा में तल्खी थी लेकिन ये तल्खी करन थापर , अर्णव गोस्वामी आदि की बकवास सुनते हुए बढ़ी थी और जब यही भाषा मैंने अरुण कान्त जी के लेख में पढ़ी फिर रहा नहीं गया |” जहाँ तक भाषा में तल्खी का सवाल है , वह अन्य प्रतिक्रिया देने वाले विद्वजनों की भाषा में भी थी | भाई निखिल भी , जिन्होंने मेरे आलेख पर बड़ी ही संयत प्रतिक्रिया दी थी , आदरणीय मिश्र जी के आलेख पर टिप्पणी देते समय उस संयतता को बरकरार नहीं रख सके | मैं पूर्ण ईमानदारी के साथ कथन करता हूँ कि मुझे किसी भी विद्वजन की टिप्पणी से ठेस नहीं पहुँची , क्लेश नहीं हुआ , क्योंकि पिछले दो दशक का , विशेषकर आडवानी जी की रथयात्रा के बाद से गुजरा समय बताता है कि मुद्दे के पक्ष में बोलने वाले भाषा ही क्या , अपने हर अंदाज में आक्रामक व्यवहार ही करते हैं | धर्म और संस्कृति को स्थापित करने का उनका धार्मिक और सांस्कृतिक ढंग देशवासियों ने बहुत भुगता है और भुगत रहा है | उनकी विचार धारा में शायद यही एक रास्ता है , जिससे वे अपने सत्य को स्थापित कर सकते हैं |
मेरे आलेख का विषय बाबरी मस्जिद –राम मंदिर विवाद से बहुत इतर , लखनऊ खंडपीठ के फैसले से “ देश के संविधान , धर्मनिरपेक्ष ढाँचे , क़ानून व्यवस्था और न्याय व्यवस्था पर पड़ने वाली चोट ” था , जो किसी भी लिहाज से इस देश के एक अरब लोगों और आने वाली पीढ़ियों के लिये बहुत महत्वपूर्ण है , चाहे कुछ या अधिक लोग इसे आज समझें या न समझें | मुझे सबसे ज्यादा खुशी होगी , यदि अयोध्या वासी अदालत से बाहर , दोनों पक्षों को सम्मान और संतोष देने वाले किसी समझौते पर पहुँच जायें और कालान्तर में इलाहाबाद उच्च न्यायालय का यह फैसला , जो देश के संविधान , धर्मनिरपेक्ष ढाँचे ,क़ानून और न्याय व्यवस्था से अलहदा दिया गया है , नल एंड वायड करार कर दिया जाता है |
इसके पूर्व कि मैं आदरणीय मिश्रजी की कुछ टिप्पणियों का जबाब दूं तथा मेरे आलेख के केन्द्रीय विषय पर छोटी सी चर्चा करूँ ,लखनऊ खंडपीठ का निर्णय किस तरह आने वाली पीढ़ियों के लिये भी त्रासदायी हो सकता है , उस पर सैद्धांतिक नहीं ( जानबूझकर , नहीं तो आदरणीय मिश्रजी मुझे ही जयचंद कहने लगेंगे ) प्रायोगिक नजर डालें | सामान्यतः न्यायालयों के बारे में यह माना जाता है कि वे किसी विवाद का निपटारा कर सकते हैं , समाधान नहीं दे सकते | लखनऊ खंडपीठ का फैसला इस सामान्य प्रचलित धारणा से परे नहीं है | इसके पीछे यह मानसिकता भी कार्यरत हो सकती है कि अरसे से लंबित प्रकरण में निपटारा तो शुरू हो , बाद में कोई न कोई पक्ष उच्चतम न्यायालय तो जायेगा ही , तो समाधान का दायित्व उच्चतम न्यायालय ही उठाये | बहरहाल , स्पष्ट तौर पर कहा जा सकता है कि अदालत ने न ही भारत के संविधान , न्याय व्यवस्था , धर्मनिरपेक्ष राज्य के चारित्रिक गुणों और क़ानून व्यवस्था के आधार पर यह फैसला दिया है और न ही तथाकथित मान्यता (आस्था) के आधार पर यह फैसला दिया है , बल्कि मामले का निपटारा कर अपना पिंड छुड़ाया है | क्योंकि , एक ओर तो , मान्यता (आस्था) के आधार पर अदालत यह मानती है कि त्रेता में पैदा हुए श्रीराम का जन्म ठीक उसी गुम्बद के नीचे हुआ था , जहाँ दिसंबर 1949 की एक रात कुछ लोगों ने ले जाकर रामलला की मूर्तियां रख दी थीं तो दूसरी ओर वह पंद्रहवी शताब्दी में खड़ी की गई मस्जिद को भी मान्यता देकर सुन्नी वक्फ बोर्ड (जिसका वाद समय सीमा से बाहर होने के कारण खारिज कर दिया गया था ) को भी मान्यता देकर एक तिहाई हिस्सा दे रही है | यह दोनों बातें एक साथ कैसे सही हो सकती हैं ? अब जो बात में कहने जा रहा हूँ , फैसला आने के बाद से स्पष्ट रूप से कहने का साहस किसी ने नहीं किया | वह बात यह है कि क्या संबंधित दोनों पक्ष के लोग साथ साथ बैठकर पूजा अर्चना या इबादत कर सकते हैं ? पहली बात कि अगर ऐसा हो सकता तो बात यहाँ तक क्यों पहुँचती ? दूसरी बात कि मुस्लिम पक्ष उच्चतम न्यायालय जाने की सोच रहा है तो इसलिए कि उसे लगता है कि उसके साथ न्याय नहीं हुआ , जिसे उसने छिपाया भी नहीं | पर , आरएसएस , विश्व हिन्दू परिषद , भाजपा , जिसके सभी प्रवक्ताओं ने न केवल फैसले का स्वागत किया था , बल्कि जोरशोर से देशवासियों से मंदिर बनाने में सहयोग माँगा था और कह रहा था कि इस फैसले के साथ ही विवाद का अंत भी हो गया है , क्यों उच्चतम न्यायालय जाने की सोच रहा है ? क्या उन्हें लग रहा था कि उनके द्वारा डाले जा रहे दबाव और फैसले के दबाव में आकर मुस्लिम पक्ष उसे मिली एक तिहाई भूमि भी उन्हें सौंप देगा , लेकिन ऐसा नहीं होने पर अब वे भी उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाने के रास्ते पर हैं ? दूसरी बात , लखनऊ खंडपीठ के जिस फैसले को दुर्भाग्यपूर्ण कहने के लिये मिश्रजी नाराज हो गए ( मैं मानता हूँ कि मुझे इस शब्द का प्रयोग नहीं करना चाहिये था क्योंकि यह कम से कम आगे बढ़ने के लिये एक आधार तो मुहैया कराता है ) थे , उस आधार पर ही अगर जमीन का बटवारा कर दिया जाए तो आये दिन दोनों पक्षों में फसाद होता ही रहेगा , क्योंकि देश का आम आदमी तो इसे स्वीकार कर लेगा , पर उनको भड़काने वाले इसे कभी स्वीकार नहीं करेंगे | मतलब पीढ़ी दर पीढ़ी दोनों समुदायों में मनमुटाव जारी रहेगा |
आदरणीय मिश्रजी ने उनके लेख की शुरुवात में मुलायम सिंह के बयान का उल्लेख किया है कि “ मुसलमान अपने को ठगा महसूस कर रहे हैं | ” मैंने अपने लेख में किसी भी जगह ऐसा कुछ नहीं लिखा है | न मुझे ऐसा कुछ कहने की आवश्यकता है | अयोध्या का मामला , जैसा कि कुछ लोग समझाने की कोशिश करते हैं , केवल भूमी के मालिकाने का विवाद नहीं था , बल्कि भारत की धर्मनिरपेक्षता के प्रति प्रतिबद्धता भी उसके साथ परीक्षा में थी | यह सच है कि किसी भी मुस्लिम धार्मिक नेता ने उजागर तौर पर धर्मनिरपेक्षता को आधार बनाकर कोई टिप्पणी नहीं की , पर , यह आशा भी तो व्यर्थ है कि कोई भी धार्मिक नेता , फिर चाहे वह मुस्लिम पक्ष से हो या या फिर हिन्दू पक्ष से , धर्मनिरपेक्षता को आधार बनाकर लखनऊ खंडपीठ के फैसले का विश्लेषण करेगा , क्योंकि उनका द्रष्टिकोण तो पूर्वाग्रही ही रहना है | जहाँ तक आदरणीय मिश्र जी के इस कथन का सवाल है कि “ हाँ , धर्मनिरपेक्षता का पाखंड करने वालों की तमाम टिप्पणियाँ इस मुद्दे पर आ चुकी हैं जिनके पेट पर इस फैसले से लात पड़ी है |” आदरणीय मिश्रजी का यह कथन उग्र भावुकता पर आधारित है क्योंकि वे स्वयं एवं सभी 1992 के बाद की परिस्थितियों से वाकिफ हैं कि किसने देशवासियों से स्वेच्छापूर्वक भी और भयादोहन करके भी तथा ईंटें बेचकर भी अरबों रुपया एकत्रित किया था और धर्म के नाम पर किनकी रोजी और रोटी और राजनीति तीनों चल रहीं हैं |
यह सच है कि देश के शासक वर्ग ने और शासक वर्ग के इशारे पर उनकी प्रतिनिधि राजनीतिक पार्टियों ने शासक वर्ग को फ़ायदा पहुंचाने के लिये अथवा स्वयं राजनीतिक फायदा बटोरने के लिये ढेरों संशोधन संविधान में किये हैं , जिनका समय समय पर विरोध भी हुआ है | यही नहीं , उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों ने भी संवैधानिक प्रावधानों और कानूनों के मौजूद रहते हुए भी , अनेकों इतर निर्णय दिए हैं ,जो अनेक बार स्वयं न्यायालयों के द्वारा दिए गए पूर्व निर्णयों से भी मेल नहीं खाते हैं | पर , इसका अर्थ यह तो नहीं कि देश के क़ानून और संविधान से इतर निर्णय देने को भी एक क़ानून मान लिया जाए , याने देश का प्रशासन तो जिसकी ढपली उसका राग के हिसाब से चल ही रहा है ,न्यायालय भी उसी ढर्रे पर चलें और उनकी विवेचना भी न हो | या फिर देश में विधि , विवेक औए तर्क के आधार पर बहस करके निर्णय लेने , प्रशासन और न्याय व्यवस्था चलाने की पद्धति ही समाप्त कर दी जाए और पूरे समाज को जिसकी लाठी उसकी भेंस से हांके जाने की पद्धति विकसित कर दी जाए , जिसकी कोशिश देश में कतिपय संगठन और उनके नेता पिछले दो दशक से धर्म और संस्कृति के नाम पर लगातार कर रहे हैं , जिसका सीधा सीधा लक्ष्य देश के प्रजातंत्र को समाप्त कर एक फासीवादी राज की स्थापना ही है |
मैं आपका शुक्रगुजार हूँ कि आपने लेख में वेद , पुराण सहित , हुक्मरानों के द्वारा लिखाई गईं ऐतिहासिक किताबों की पूरी सूची पेश कर दी | उपरोक्त , वेद , पुराण सहित समस्त ऐतिहासिक किताबें अदालत में विभिन्न पक्षों के द्वारा पेश की गईं थीं या फिर अदालत ने स्वयं अपने संदर्भ के लिये उनको हासिल किया था | इनके अतिरिक्त गुरु ग्रन्थ साहिब सहित अन्य अनेक पुस्तकें तथा दस्तावेज अदालत में विचार के लिये प्रस्तुत हुए , उनमें से कितनों को अदालत में अपने संज्ञान में लिया और कितनी पुस्तकें तथा दस्तावेज वाकई फैसले पर पहुँचाने के लिये उपयोगी थे , यह अदालत की कार्यावाही और फैसले में उल्लेखित है | स्वयं जज साहब के सामने क्या परिस्थिति थी , यह माननीय जजों में से एक के द्वारा निम्न तरीके से फैसले की शुरूवात में व्यक्त की गई है ;
4372. To our mind instead of puzzling ourselves in somuch literature etc. in view of certain aspects which emerges from whatever we have mentioned above may be summarised which probably may give some idea as to how the questions are to be answers. The antiquity of Ayodhya is not disputed. It is also not disputed that Ayodhya is known as the principle place
of religion and mainly concerned with Vaishnavites, i.e., the followers of Lord Rama. Lord Rama was borne at Ayodhya and ruled thereat. The religious texts like Valmiki Ramayan and Ramcharitmanas of Goswami Tulsidas and others like Skandpuran etc. mentions that Lord Rama was borne at Ayodhya and it is his place of birth but do not identify any particular place in Ayodhya which can be said to be his place of
birth. On the one hand we do not get any idea about the exact place or site but simultaneously we can reasonably assume that once it is not disputed that Lord Rama was borne at Ayodhya
there must be a place which could be narrowed down at the site of his place of birth. It is true that a search of a place of birth after long time even today may not be very easy if one tried to
find out in this regard just three or four generations back.Therefore, for making such kind of inquiry in a matter of such an antiquity is almost impossible. (पेज नंबर -4927)

सच तो यही है कि अदालत के सामने पेश किये गए सभी दस्तावेजों और गवाहों से अदालत को सिर्फ वही पता चला , जिस पर किसी को भी एतराज नहीं था याने अयोध्या का पुरा और धार्मिक महत्त्व तथा श्री राम का वहाँ राज करना और पैदा होना | पर , अदालत में पेश किये गए किसी भी दस्तावेज से अयोध्या में जन्म स्थल चिन्हित नहीं हुआ | अदालत की सोच तो यह थी कि जब तीन या चार पीढ़ी पहले के जन्म स्थान को खोजना ही आसान नहीं है तब इतने प्राचीन काल के मामले में तो यह असंभव ही है | अदालत ने तब यह रास्ता अपनाया कि फिर क्यों न उसी स्थान पर रामलला का जन्म मान लिया जाए , जहाँ दिसंबर’49 की एक रात को मूर्तियां रख दी गईं थीं , क्योंकि मान्यता वही है |

मुझे लगता है कि मुझ पर देश की शान्ति व्यवस्था के साथ खेलने और दंगा भड़काने का आरोप जरुर आपने भावेश में लगाया होगा | अभी तक दंगों की जांच के लिये बने आयोगों ने अधिकतर आरएसएस तथा उससे जुड़े संगठनों को ही हिंसा भड़काने से लेकर खुद हिंसा करने के लिये अनेक बार जिम्मेदार ठहराया है | कुछ के नाम इस प्रकार हैं ;

जगमोहन रेड्डी आयोग ( 1969 , अहमदाबाद के दंगा )
विद्याथिल आयोग ( 1969 , तेलीचेरी का दंगा )
जीतेन्द्र नारायण आयोग ( 1971 , जमशेदपुर का दंगा )
डी पी मदान आयोग ( 1970 , भिवंडी का दंगा )
वेणुगोपाल आयोग ( 1982 , कन्याकुमारी का दंगा )
श्रीकृष्ण आयोग ( 1992-93)

मैं एक शांतिप्रिय और साधारण भारतीय हूँ | मैं स्वयं में कोई धार्मिक या सांस्कृतिक संस्था नहीं हूँ , जो इस तरह के काम में लिप्त हो जाए | न ही मेरे इस तरह की किसी भी संस्था या पार्टी से जुड़ाव है कि उसके निहित राजनीतिक अथवा अन्य स्वार्थों के दायित्वों का वहन मुझे इस रूप में करना पड़े | यह तो आप समझ ही गए होंगे कि मैं अंधविश्वासी या कट्टरपंथी भी नहीं हूँ , जैसे कि अमूमन सभी देशवासी भी नहीं हैं | इसलिए दंगा भडकाने या शान्ति व्यवस्था भंग करने जैसे विचार मेरे अवचेतन में भी नहीं रहते , चेतना में रहने का तो कोई सवाल ही नहीं है | यदि ऐसा होता तो इतनी दबंगई से मैं अपने विचार नहीं रख पाता और समयानुकूल बातें करता | नदी की धारा के साथ तो शव भी तेजी से और दूर तक बह जाता है , किन्तु इसका अर्थ यह तो नहीं हुआ कि शव एक कुशल तैराक है |

मेरे लेख का केन्द्रीय विषय मंदिर या मस्जिद नहीं बल्कि भारत के संविधान , धर्मनिरपेक्ष चरित्र , क़ानून और न्यायव्यवस्था की रक्षा , था और हमेशा रहेगा | आखिर देश की सत्तर करोड़ लोगों को जीने , खाने , रहने की गारंटी तो उसी से मिलती है | यदि एक बार उपरोक्त व्यवस्थाएं ध्वस्त हो गईं तो आम जनों के इस विशालकाय समूह का क्या होगा ? यही मेरी चिंता का विषय है |

अंत में , मैं आपका आभारी हूँ कि आपने एक सम्पूर्ण लेख मुझे समझाने के लिये लिखा | मैं आपके समान विद्वान नहीं हूँ , अतएव नहीं जानता कि अपनी बातों को ठीक से रख पाया या नहीं | मैं उन महानुभावों का भी धन्यवाद करता हूँ , जिन्होंने आपके लेख पर टिप्पणी कर विषय की गरिमा को बढ़ाया |

अरुण कान्त शुक्ला “आदित्य ”

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