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माओवाद : फोकस बदलने की आवश्यकता –

दबंग आवाज
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माओवाद : फोकस बदलने की आवश्यकता –

अनेक बार देश के अंदर ऐसी घटनाएं घटती हैं , जो , देश की राजनीतिक , सामाजिक और आर्थिक स्थिति से सरोकार रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति को , उस घटना के सम्बन्ध में , सोचने के लिये विवश कर देती हैं | डा.विनायक सेन को राष्ट्र द्रोह के आरोप में दी गयी आजीवन कारावास की सजा भी एक ऐसी ही घटना थी , जिसने न केवल अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर लोगों का ध्यान भारत की न्यायायिक व्यवस्था की और खींचा बल्कि सोचने के लिये मजबूर किया था कि क्या भारतीय लोकतंत्र में धीरे धीरे अपक्षय और विघटन घर कर रहा है | इसके बावजूद कि अभी उनकी अपील पर उच्च न्यायालय में सुनवाई होकर फैसला आना बाकी है , उन्हें सर्वोच्च न्यायालय से मिली जमानत लोगों को आश्वस्त करती है कि सर्वोच्च स्तर पर न्याय और लोकतंत्र सुरक्षित है |

प्रदेश में माओवादी गतिविधियों का इतिहास लगभग चार दशक पुराना है , किन्तु पिछले दो वर्षों में और विशेषकर राजनांदगांव जिले के मानपुर में एक एस.पी और 36 पोलिस जवानों के तथा अप्रैल’2010 में दंतेवाड़ा जिले के ताड़मेटला में सीआरपीएफ के 76 जवानों के माओवादी हमलों में मारे जाने के बाद हालात ऐसे बन गये हैं कि माओवादियों के साथ सुहानभूति की बात तो दूर , आदिवासी क्षेत्र में सुरक्षा बलों , पोलिस , तथाकथित एसपीओ या सरकार (राज्य) के द्वारा की गयी किसी ज्यादती के बारे में बोलने मात्र से , बोलने वाले के प्रति शासन और पोलिस की भौंहें तन जाती हैं | मई’2010 में बस्तर इलाके में एक बस के ऊपर किये गये हमले में एसपीओ के साथ साथ नागरिकों के मारे जाने की घटना के बाद आम नागरिकों में भी इस हिंसा के प्रति रोष उत्पन्न हुआ है | बीबीसी के अनुसार वर्ष 2010 में शासन-माओवादी मुठभेड़ों में 372 लोग मारे गये , जिसमें सबसे ज्यादा खामियाजा सुरक्षा बलों को उठाना पड़ा | 129 नागरिकों और 70 गुरिल्लों को भी अपनी जान गवानी पड़ी | आज, वे ही अग्निवेश , प्रदेश की सरकार और पोलिस के कोपभाजन बने हुए हैं , जिन्होंने कुछ समय पहले ही पोलिस के अगुवा किये गये जवानों को माओवादियों से छुड़वाने में मध्यस्थ की भूमिका निभाई थी | उनका कुसूर है कि वो ताड़मेटला में उन लोगों से मिलने जा रहे थे , जिनके घर सुरक्षा बलों द्वारा जला दिये गये | प्रदेश के गृहमंत्री ने तो यहाँ तक कहा है कि यदि अग्निवेश छत्तीसगढ़ आये तो उनके खिलाफ उचित कानूनी कार्यावाही की जायेगी | परिस्थिति की सचाई यही है कि माओवादियों के खिलाफ आज जिस अभियान को चलाया जा रहा है , उसे कांग्रेस-भाजपा से लेकर सीपीएम (मार्क्सवादी) तक , सभी राजनीतिक दलों का समर्थन प्राप्त है और प्रदेश के 10 लाख से ज्यादा आदिवासी माओवादी और सुरक्षाबलों के बीच बुरी तरह फंसे हुए हैं | उन्हें , उनके दुखों और परेशानियों से निजात दिलाने वाला कोई नहीं है |

बहरहाल , जो कुछ हो रहा है , वह उस लंबी कहानी का हिस्सा है , जिसमें भारत के शासक वर्ग ने देश के विकास के लिये नवउदारवाद के रास्ते पर चलने का निर्णय विश्व बैंक , आईएमएफ तथा अमेरिका की अगुवाई में विकसित राष्ट्रों के दबाव में लिया | इस निर्णय ने जहां एक और देश के गरीब तबकों के जीवन को बदहाल बनाया तो वहीं देश के अनेक राज्यों और क्षेत्रों में रह रहे आदिवासियों के जीवन और जीवनयापन के ऊपर गंभीर खतरे खड़े कर दिए | इसके अतिरिक्त , परिस्थिति की विशेषता है कि नवउदारवादी विकास के रास्ते पर तेजी से चलने की उतावली में आदिवासियों के मध्य शिक्षा , स्वास्थ्य , क्रय शक्ति , नए रोजगारों में खप सकने वाली योग्यता का निर्माण किये बिना , सरकार जंगलों को देशी और विदेशी कंपनियों को औने पौने दामों पर बेचने पर तुली है और अपने इस प्रयास को वह सुरक्षाबलों और पोलिस की मदद से अंजाम देने की कोशिश में है | इसी का नतीजा है कि माओवादियों को आदिवासियों का समर्थन भी हासिल हो रहा है और माओवाद के बस्तर के आदिवासी अंचल से निकलकर रायपुर , धमतरी , राजनांदगांव दुर्ग और महासमुंद के सेमी-अरबन इलाके तक फ़ैलने की रिपोर्ट आ रही हैं | इन परिस्थितियों में माओवादियों से जब हिंसा का रास्ता छोड़ने कहा जाता है तो उनका उलट प्रश्न यही होता है कि तब फिर सरकार भी भारतीय समाज के सबसे अधिक दबे-कुचले , आजादी के बाद भी अवेहलना के शिकार और हाशिए पर पड़े आदिवासियों के ऊपर नवउदारवादी हिंसा को छोड़े |

पर , इस जद्दोजहद में माओवादी जिस एक बात को भूल रहे हैं वह यह है कि सरकारें और शासक वर्ग जनसाधारण के मध्य माओवादी हिंसा को फोकस करने में और उसके खिलाफ एक आम वातावरण आदिवासी और शहरी क्षेत्रों में बनाने में सफल हुईं हैं , जो न केवल माओवादी राजनीति की साख को खत्म कर रहा है बल्कि सामान्य रूप से सभी तरह की क्रांतिकारी राजनीति की साख पर से लोगों का विश्वास हटा रहा है | माओवादी हिंसा का यह रास्ता राष्ट्रीयता , लोकतंत्र जैसे नारों की आड़ में सरकार और शासक वर्ग की नीतियों और विकास के उनके विनाशक नवउदारवादी रास्ते को भी पुख्ता कर रहा है | माओवादी हिंसा के प्रति आम लोगों के मन में पैदा हो रही इस घृणा की सरकार को बहुत जरुरत है और विकास की विनाशक नीतियों को भविष्य में और तेजी से लागू करने के लिये और भी जरुरत होगी | माओवादी जाने अनजाने इसमें मददगार हो रहे हैं |

इसलिए , आज की आवश्यकता है कि माओवादी सहित सम्पूर्ण क्रांतिकारी वामपंथ अपनी विचारधारा और कार्रवाईयों पर बहस और संघर्ष का फोकस हिंसा से हटाकर उनकी नीतियों , कार्यक्रमों , देश के विकास के मुद्दों तथा जनमुखी नीतियों की तरफ करे ताकि विकास के इस पूंजीवादी रास्ते के खिलाफ संघर्षों को अंजाम तक पहुंचाया जा सके | हमें याद रखना होगा कि क्रांती केवल हथियारबंद संघर्ष या राजद्रोह ही नहीं है , हालाकि इसकी सम्भावनाओं को एकदम नकारा नहीं जा सकता | क्रान्ति को ज्यादा बेहतर तरीके से इस तरह समझा जा सकता है कि यह समाज में ढांचागत कायाकल्प करने की ऐसी प्रक्रिया है – बुर्जुआ लोकतंत्र में जिसे पूरा करने की अपनी विशेष जटिलताएं हैं | मैं जानता हूँ , मेरे विचार से खांटी क्रांतिकारी , बुद्धिजीवी , मानवाधिकार के समर्थक नाराज हो सकते हैं लेकिन उनको भी आज नहीं तो कल इस लिहाज से सोचना पड़ेगा |

अरुण कान्त शुक्ला –

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