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जरूरी है राजनीतिक लोकतंत्र को बचाए रखना –

दबंग आवाज
दबंग आवाज
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भारत के अंदर लोकतंत्र को लेकर जो एक बहस छिड़ी हुई है , उसमें लोकतंत्र , आंदोलन और अनशन को लेकर तरह तरह के विचार सुधी ज्ञानी जन दे रहे हैं | मेरा पिछले लेख पर एक सुधी पाठक ने दूरभाष पर मुझसे सीधा सवाल किया कि क्या लोकतंत्र से ज्यादा महत्वपूर्ण करप्शन को रोकना नहीं है | ब्लॉग पर भी एक विचार आया था | उस सुधी पाठक को और ब्लॉग पर दिए गये अपने विचारों को पुनः आप लोगों तक एक लेख के रूप में रखने का प्रयास कर रहा हूँ | स्वतंत्रता के सातवें दशक में पहुंचते पहुंचते शुरू हुआ विचार विमर्श आम और मध्यमवर्ग के अंदर एक अच्छी बहस का रूप ले रहा है | मेरा उद्देश्य किसी को जबाब देना न होकर , अपनी बात को रखना है | सभी को याद होगा कि श्रीमती इंदिरा गांधी ने अंतरात्मा की आवाज पर राष्ट्रपति चुनाव में पार्टी के अधिकृत प्रत्याशी के बदले व्ही व्ही गिरी के पक्ष में कांग्रेस के बड़े तबके को लामबंद किया था और गिरी को जितवाया था | उस दौरान किसी अखबार या पत्रिका में मैंने एक लेख भारत में डेमोक्रेसी (लोकतंत्र) के ऊपर पढ़ा था | उस लेख में भारत के प्रथम प्रधान जवाहरलाल नेहरु के व्यक्तिगत इंग्लिश मित्र को यह कहते हुए उद्धृत किया गया था कि ब्रिटिश राज के उत्तराधिकारी के रूप में नयी सरकार ( जवाहरलाल नेहरू की सरकार ) की भूमिका शासक और शासित वर्ग के बीच में एक खाड़ी के तरह ही है और नए शासकों की जीवनशैली और व्यवहार से इसी बात का प्रमाण मिलता है कि भारत को मिली राजनीतिक आजादी ने विदेशी शासकों को हटाकर देशी लोगों के समूह को शासन देने से अधिक भारतीयों को और कुछ नहीं दिया है | लेख में विस्तार से बताया गया था कि भारत में संपन्न वर्ग के लोगों का शासन है जो अपनी विशेष स्थिति को बनाए रखने के लिये उन्हें प्राप्त राजनीतिक ताकत का उपयोग करते हैं | लेख का अंत कुछ इस तरह था कि भारत में लोकतंत्र ने भारत के बहुसंख्यक गरीब लोगों को संगठित होने और राजनीतिक ताकत का इस्तेमाल करने की शक्ति इस तरह नहीं दी है कि वे अपने हितों को आगे बढाने में उसका इस्तेमाल कर सकें |

यह कमेन्ट नेहरू के दौरान के लोकतंत्र के ऊपर था | क्या परिस्थतियां आज कुछ भिन्न हैं ? मुझे नहीं लगता | उस लेख को पढ़ने के लगभग चालीस वर्षों के बाद आज भी जहां तक गरीब और वंचित तबकों का सवाल है संसदीय लोकतंत्र उनकी उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा है | यह अब कोई छिपी हुई बात नहीं है कि यह लोकतंत्र जिसमें हम रह रहे हैं , लोगों को वे शक्तिशाली हैं , का आभास दिलाने का बहत अच्छा तरीका है , जबकि वास्तविकता में उन्हें उस लोकतंत्र की ताकत का बहुत थोड़ा अंश ही प्राप्त होता है और शासक वर्ग का प्रभुत्व समाज पर बनाए रखने में इस लोकतंत्र का भारी उपयोग होता है | उपरोक्त तमाम तथ्यों के बावजूद लोगों ने इस लोकतंत्र के लिये संघर्ष किया है और संघर्ष के बाद उसे प्राप्त किया है | इतना ही नहीं लोगों ने इस लोकतंत्र के ऊपर हुए हमलों के खिलाफ भी संघर्ष किया है और उसे बचाया है | इसलिए , उनके लिये यह महत्वपूर्ण है |

द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान बुरी तरह तबाह हुआ था | बीसवीं सदी के आठवें दशक के अंत तक उसका पुनर्निर्माण चलता रहा | उस दौरान , जैसा की बाह्य संकट के समय सभी देशों के आम लोगों और श्रमिक , किसान तबके के साथ होता है , जापान में भी आम जनता ने देश प्रेम से ओतप्रोत होकर अपने रोष को जाहिर करने काली पट्टी बांधकर कार्य करने का तरीका आंदोलन के विकल्प के रूप में अपनाया था और वहाँ सरकार हस्तक्षेप कर विवादों का निपटारा भी कराती थी | दुनिया के लगभग सभी पूंजीवादी देशों के मालिकान और सरकारें अपने मजदूरों को उसका उदाहरण देकर आंदोलन करने से रोकती थीं | इसी आधार पर सारे विश्व में यह मशहूर है कि जापान के लोग अत्यंत देशभक्त होते है और देश के लिये कितने भी घंटे और अत्यंत कम वेतन पर भी काम करने को तैयार रहते हैं | बीसवीं सदी के नौवें दशक के बाद से परिस्थिति में बहुत फर्क आ गया है और अब वहाँ भी आंदोलन के उन्हीं तरीकों का इस्तेमाल होता है , जो शेष दुनिया में अपनाए जाते हैं | लेकिन , द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पैदा हुई उस भावना का अभी पूरी तरह अंत नहीं हुआ है | उस दौर की एक रोचक बात यह भी है कि एक तरफ जब जापान के आम लोग , मजदूर ,किसान इतने त्याग कर रहे थे , जापान के पूंजीपतियों , राजनीतिज्ञों , वहाँ काम कर रही ब्रिटेन और अमेरिका बेस मल्टीनेशनल कंपनियों ने इस तरह के किसी त्याग को नहीं दिखाया | उनका मुनाफ़ा वैसा ही बरकरार रहा , पूंजी का एकत्रीकरण तेज रफ़्तार से होता रहा और वहाँ के राजनीतिज्ञ भ्रष्टाचार करने से नहीं चूके | यहाँ तक कि वहाँ के प्रधानमंत्री तक इसमें शामिल रहे |

दरअसल एक ऐसी व्यवस्था में , जैसी में हम रह रहे हैं , आंदोलन का कोई विकल्प हो ही नहीं सकता | पूंजीवादी व्यवस्था में पूंजीपती वर्ग सरकार के दुधमुंहे बच्चे के समान होता है |सरकारें उसे स्पून फीडिंग कराती हैं और मजदूरों , किसानों तथा कम्मैय्या वर्ग को वे उस कुत्ते , बिल्ली के समान देखती हैं , जो उस बच्चे का दूध या निवाला झपटना चाहता है | इसीलिये सरकार का व्यवहार इस वर्ग के लिये प्रताड़ना से भरा होता है | एक उदाहरण काफी होगा , केन्द्र सरकार ने पिछले छै वर्षों में कारपोरेट सेक्टर को 21 लाख करोड़ से ज्यादा की राहतें आयकर , एक्साईज और कस्टम में छूट के मार्फ़त दी हैं और उसी सरकार ने इस बजट में यह कहते हुए वेट को पांच प्रतिशत कर दिया कि कुछ राज्यों में यह पांच है और कुछ राज्यों में चार , इसलिए एक समान करने इसे पांच किया जाता है |जबकि यह तय है कि बाकी वस्तुओं के छोड़ भी दिया जाए तो इससे खाने पीने की वस्तुओं के मूल्य में वृद्धि तय है , जिसका सबसे ज्यादा असर आम आदमी पर ही पड़ना है | क्या समानता लाने इसे चार नहीं कर सकते थे ? सोचिये , केन्द्र सरकार के द्वारा छटा वेतनमान दिए जाने के बाद केन्द्र के कर्मचारियों को , पीएसयू के अधिकारियों को शायद 2006 या 2007 से दस लाख तक की ग्रेच्युटी का भुगतान हो रहा है , लेकिन यही क़ानून अन्य क्षेत्र के लोगों के लिये पिछले साल मई से लागू किया गया है | कारपोरेट के मामले में एलर्ट ओर आम जनता के मामले में आपराधिक लापरवाही इस व्यवस्था का चारित्रिक गुण है |

आज तक जनता ने जो भी पाया है आंदोलन के माध्यम से पाया है | तानाशाही में आंदोलन कितना कठिन होता है , इसे उस देश के लोग ही जानते हैं जो तानाशाही में रहते हैं | हमारे देश के लोग लोकतंत्र के चलते ही आंदोलन कर पाते हैं | इसलिए लोकतंत्र उनके लिये महत्वपूर्ण है | मिश्र में लोकतंत्र के लिये हुए आंदोलन में प्राप्त शीघ्र सफलता के पीछे वहाँ के मजदूरों और कर्मचारियों के आंदोलन का बहुत बड़ा योगदान है क्योंकि वे हड़ताल पर गये , लेकिन उनकी मांगे आज तक नहीं मानी गईं हैं | अन्ना के अनशन का अपना बहुत महत्त्व है , उसे किसी भी तरह नकारा नहीं जा सकता | पर , ज़रा सोचिये , यदि अन्ना की मांग होती कि शिक्षा के निजीकरण को सरकार के द्वारा दिए गये प्रोत्साहन और सहूलियतों के चलते झुण्ड के झुण्ड ढेरों हिंदी , अंग्रेजी स्कूल खुले है , जहां शिक्षकों को 500 , 700 , रुपयों से लेकर 1500 . 2000 या अधिकतम 3000 रुपयों में शिक्षा देने कहा जाता है और सामाजिक और आर्थिक स्थितियों के मारे हमारे युवा उसे स्वीकार करने बाध्य हैं , इन शिक्षकों को वही वेतनमान दिया जाए , जो राज्य सरकारें अपने शिक्षा कर्मियों को दे रही हैं , तो क्या सरकार अन्ना के सामने झुकती और इससे भी अहं कि क्या अन्ना ऐसी किसी मांग को लेकर अनशन के लिये तैयार होते ? भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई बहुत महत्त्व पूर्ण है , अन्ना का अनशन भी सफल रहा और बहुत महत्वपूर्ण है किन्तु श्रंगारिक है | मैं नहीं मानता , जैसा कि कुछ लोगों ने (बड़े बड़े लोगों और राजनीतिक दलों ने भी) कहा कि 2जी का 176000 करोड़ रुपये से नरेगा या राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन की किसी योजना का कोई भला सरकार ने किया होता | आखिर इस घपले में , राजा को रिश्वत मिली होगी , पर , फ़ायदा तो कारपोरेटस को ही हुआ | यदि वे ज्यादा बोली देकर 2 जी खरीदते तो जनता से वसूल कर लेते और नहीं तो सरकार अन्य किसी छूट के माध्यम से उन्हें कम्पनसेट कर देती लेकिन उस पैसे को आम आदमी पर तो खर्च करने का कोई सवाल ही नहीं है | जो ऐसा सोचते हैं , वे मुगालते में हैं और हमारे देश में जो ,यह नया, भ्रष्ट अफसरों , भ्रष्ट राजनीतिज्ञों और उनकी बिगड़ैल औलादों का नया वर्ग तैयार हुआ है , उस मुगालते को बढाने में बहुत बड़ा योगदान दे रहा है | लोकतंत्र हमारे लिये बहुत जरूरी है | इसका , जो विकल्प , सोवियत संघ के रूप में हमारे सामने था , उसके टूटने के बाद मजदूर आंदोलन वैसे भी कमजोर हुआ है | खुद हमारे देश में विकल्प पेश करने वाली राजनीतिक ताकतों की स्थिति कमजोर है | भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई महत्वपूर्ण और जरूरी है , पर , उससे ज्यादा जरूरी है राजनीतिक लोकतंत्र को बचाये रखना , जिसने अन्ना को अनशन पर बैठने का अधिकार दिया |

अरुण कान्त शुक्ला

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