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वर्त्तमान सामाजिक परिदृश्य में श्रम की स्थिति –

दबंग आवाज
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वर्त्तमान सामाजिक परिदृश्य में श्रम की स्थिति –

देश के मेहनतकशों के माने हुए नेता और संगठन कर्ता बी.टी.रणदिवे ने 25 वर्ष पूर्व 1986 के मई दिवस पर कहा था मेहनतकशों के आन्दोलनों के अंदर फौरी मांगों और फौरी संघर्षों तक स्वयं को सीमित रखने की प्रवृति के घर कर गयी है , परिणामस्वरुप वे मई दिवस को मात्र औपचारिक घोषणाएं करने और अपनी कुछ फौरी मांगो को रखने के दिन के रूप में देखते हैं | इस प्रवृति के चलते उनका आंदोलन पूंजीवादी शासन को खत्म करने , समाजवाद और मजदूरों के प्रभुत्व को स्थापित करने के क्रांतिकारी लक्ष्य से भटक गया है | इन 25 वर्षों के दौरान भारत ही नहीं पूरे विश्व के मेहनतकशों और कर्मचारियों को वैश्वीकरण , मुक्त अर्थव्यवस्था और प्रतिद्वंदिता के नाम पर अमानवीय शोषण , श्रम अधिकारों पर हमलों , मालिकों और नियोजकों के द्वारा लगातार की जाने वाली वेतन कटौतियों और छटनी के दौर से गुजरना पड़ा है | भारत ही नहीं दुनिया के सभी देशों का शासक वर्ग और सरकारें इस दौर में श्रम के विरोध में खुलकर खड़ी दिखाई दी हैं |

वैश्वीकरण के नाम पर लागू की गईं नवउदारवाद की नीतियों का सबसे बड़ा खामियाजा यदि किसी को भुगतना पड़ा है तो वह श्रम है | सामाजिक सरोकार के किसी भी क्षेत्र को विचार धारा के आधार पर इतना उपेक्षित पिछले तीन दशकों में नहीं किया गया , जितना श्रम को किया जा रहा है | वर्त्तमान समाज जिसमें हम रहते हैं , आय , संपत्ति , लिंग , भाषा , नस्ल , जाती , धर्म , शिक्षा तथा और भी अनेक आधारों पर विभाजित है | इनमें से प्रत्येक विभाजन के ऊपर न केवल बहसें होती हैं बल्कि अनेक भेदों को दूर करने के प्रयास भी सरकार और समाज के स्तर पर किये जाते हैं | लेकिन समाज में श्रम के आधार पर मौजूद विभाजन के ऊपर शायद ही कभी या बहुत कम बात की जाती है | यहाँ तक कि बहस और चर्चा के लिये सबसे सशक्त माने जाने वाले मीडिया माध्यम टी.व्ही. और फिल्मों में भी मनोरंजक कार्यक्रमों से लेकर खबरों और विज्ञापनों तक सभी कार्यक्रम उपभोक्ता वस्तुओं और उपभोग पर ही केंद्रित हैं और समाज की सबसे बड़ी सच्चाई “श्रम” या “श्रमिक” सुनियोजित ढंग से परिदृश्य से बाहर कर दिए गये हैं | श्रम या श्रमिक को समाज का महत्वपूर्ण अंग मानकर नीति निर्धारक , सरकारें और नियोजक शायद ही कभी विस्तार से उनके बारे में विमर्श करते होंगे | जब कभी श्रम या श्रमिक की बात होती है तो उन बातों के केन्द्र में श्रमिकों की छटनी , उनके वेतन और मजदूरी को कम करने की कोशिशें तथा मालिकों को उन्हें फायर करने के अधिकार देने के उपाय और श्रम के ठेकाकरण करने की नीतियां ही होती हैं | या फिर , विज्ञापनों में बड़े ही रोमांटिक ढंग से श्रम का बखान होता है | मसलन , एक किसान को बड़ा खुशहाल दिखाया जाएगा क्योंकि किसी विशेष कंपनी की खाद या दवाई डालकर उसने चार गुनी फसल पैदा की है या फिर कोई सरकार अपने कार्यों के विज्ञापन के लिये ऐसी कोई फिल्म जारी करेगी | कोई इंजीनियर या सेल्समेन इसलिए सफल है क्योंकि वो हेवर्ड्स या किंगफिशर का सोडा पीता है या कोई नौजवान इंटरव्यू में इसलिए अच्छा परफार्म करता है क्योंकि उसके पास फेयर एंड लवली या किसी डियोड्रेंट का आत्मविश्वास है | भारत के 12 करोड़ से अधिक बेरोजगारों और अर्द्धबेरोजगारों को मिलाकर विश्व के आधे अरब से ज्यादा बेरोजगारों और अर्द्धबेरोजगारों की बदहाली के ऊपर इनकी नजरें नहीं जाती क्योंकि समाज के ऊपर हावी श्रम विरोधी विचारधारा को इस बदहाली को समाज की नज़रों से छुपाना है | किसानों की आत्महत्याएं खबर बन सकती हैं , पर उस पर कोई भी सार्थक बहस टाली जाती है क्योंकि वह व्यवस्था के दोषों को उजागर करेगी | मशीनों से लड़ते , खदानों के जहरीले वातावरण से त्रस्त , अपनी सृजनात्मकता को खो चुके , मजदूरों का जीवन , कार्यकुशलता और मुनाफे के नाम पर पापुलर मीडिया की नज़रों से दूर रहता है क्योंकि वह मीडिया भी समाज पर प्रभुत्व रखने वाले वर्ग के ही हाथों में है |

भूमंडलीकरण के पिछले तीन दशकों से दुनिया के सभी देशों की सरकारें बड़े कारपोरेट घरानों के सेवक के रूप में ही कार्य कर रही हैं | सरकारों के इस समर्पण के खिलाफ विश्व का संगठित मजदूर आंदोलन सशक्त प्रतिरोध नहीं खड़ा कर पाया और परिणामस्वरुप संघर्षों से पाए ऐसे अनेक अधिकार और सुरक्षा प्रावधान , जो मेहनतकशों को बाजार की लिप्सा और पूंजी के हमलों से बचाते थे , राजनीति-नैगम घरानों के गठजोड़ ने छीन लिये हैं | सामाजिक सुरक्षा की सबसे बड़ी योजना पेंशन भी निजीकरण की भेंट हो गयी है | मालिकान खदानों , कारखानों और अन्य कार्यस्थलों पर सुरक्षा कानूनों की धज्जियां उड़ाते हुए न केवल मजदूरों के जीवन को जोखिम में डाल रहे हैं बल्कि हजारों और लाखों अन्य लोगों के जीवन को भी जोखिम में डाल रहे हैं | प्रदूषण के उपायों की अनदेखी करने का नतीजा यह है कि कारखानों के आसपास के रिहाईशी इलाके के लोग गंभीर संकट में हैं |

दुनिया का मजदूर आंदोलन प्रभावशाली ढंग से पूंजी के इस आक्रमण का प्रतिरोध नहीं कर पाया है | वह साम्राज्यवाद या उस अर्थ में अमेरिका की विदेश नीति का भी विरोध पूरी तरह से नहीं कर पाया है , जिसने दुनिया के हर हिस्से के मेहनतकश के जीवन को बदहाल किया है | इस परिस्थिति के बावजूद , यह कल्पना करना कठिन है कि मेहनतकश जमात के ऊपर हो रहे इन हमलों और साजिशों को बिना मजबूत ट्रेड यूनियनों और मिलिटेंट आन्दोलनों के रोका जा सकेगा | पिछले एक दशक में जी- 20 की बैठकों के दौरान हुए प्रदर्शन , ईराक युद्ध के खिलाफ अमेरिका , ब्रिटेन , फ्रांस सहित दुनिया के अन्य अनेक देशों में हुए प्रदर्शन तथा 2008 की मंदी के बाद कार्पोरेट्स को दिए गये पैकेजों के खिलाफ विश्व स्तर पर ट्रेडयूनियनों के द्वारा किया गया एकजुट विरोध इस आशा को जीवित रखता है कि विश्व स्तर पर मजदूर आंदोलन अपनी धार तेज कर सकता है | अब जबकि भूमंडलीकरण के सभी दावे थोथे साबित हो चुके हैं , मजदूर आंदोलन को लोगों को ज्यादा व्यापक सोच रखने के लिये प्रेरित करना चाहिए | कामगारों के जीवनयापन का स्तर गिर रहा है और उन्हें बच्चों की शिक्षा , डाक्टर की फीस , और मकान किराया या घर बनाने के लिये गये कर्ज की किश्त में से किसे प्राथमिकता दें , जैसे सवालों से जूझना पड़ रहा है | इस समाज की प्राथमिकताओं में बुनियादी दोष हैं , वे इसे जानते हैं , यूनियनों को इसे उनके लिये दोहराना होगा और उन्हें संघर्ष के लिये प्रेरित करना होगा | इसके लिये ट्रेड यूनियनों के कर्ताधर्ताओं के पास सामाजिक नजरिये के साथ साथ आदर्श प्रस्तुत करने की इच्छाशक्ति और सेवाभावना का होना जरूरी है | उन्हें हमेशा याद रखना चाहिए कि वे समाज बदलने के अहं कार्य में लगे है और मजदूरों में से ही हैं , उनके बॉस या मालिक नहीं |

अरुण कान्त शुक्ला

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