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भारतीय उच्च वर्ग: साधारण नागरिक दायित्व बोध से भी दूर —

दबंग आवाज
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टाटा समूह के अध्यक्ष रतन टाटा ने हाल ही में लन्दन के अखबार “दी टाईम्स” में दिए एक साक्षात्कार में अमीरों और गरीबों के बीच बढ़ती खाई के प्रति चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि “हम असमानता को हटाने के लिये बहुत कम प्रयास कर रहे हैं | हम इसको बने रहने दे रहे हैं |” रतन टाटा ने यह टिप्पणी मुकेश अम्बानी के नये 27 मंजिला घर “एंटिला” के बारे में चर्चा करते हुए की थी | मुकेश अम्बानी का यह 27 मंजिला , तीन हेलीपेड वाला घर ही नहीं , एक सीईओ के रूप में उनका सालाना वेतन भी देश में गत दिनों आलोचना का विषय रहा है | टाटा और बिड़ला देश के पुराने औद्योगिक घराने हैं ,जिनका देश के स्वतंत्रता पश्चात हुए औद्योगिक विकास में ही नहीं , स्वतंत्रता पूर्व के आजादी के संघर्षों में भी परोक्ष और अपरोक्ष दोनों तरह का योगदान रहा है | दोनों समूह ने स्वातंत्रोत्तर भारत में सामाजिक क्षेत्रों में काफी निवेश किया है | यद्यपि , टाटा समूह ने पंगा नहीं लेने के हिसाब से स्पष्टीकरण दिया है कि उनके चेयरमेन की बातों को तोड़ मरोड़ कर पेश किया गया है , उसके बावजूद , रतन टाटा जब यह कहते हैं कि “वहाँ (एंटिला में) रहने वाले व्यक्ति को अपने आसपास के लोगों के बारे में चिंता करनी चाहिए कि वह क्या बदलाव ला सकता है”, तो वे उस क्रूर सच्चाई को ही व्यक्त करते हैं , जो देश के जनमानस में बसी है कि देश के उद्योगपती और धनाड्य धन (पूंजी) एकत्रीकरण में इतने मोहग्रस्त हो गये हैं कि उन्हें अपने देश और समाज के लोगों के प्रति साधारण से नागरिक दायित्व का बोध भी नहीं रहा है |

नवउदारवाद के पिछले दो दशकों में से बारह साल का कार्यकाल प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहनसिंह का रहा है | अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने भारत के उद्योगपतियों और धनाड्यों को अनेक बार मित्रवत चेताया कि वे अपने धन और वैभव के भोंडे प्रदर्शन से बाज आयें | मनमोहनसिंह पिछले बीस वर्षों में भारत के अंदर उच्च वर्ग के सबसे विश्वसनीय और वफादार नेता के रूप में उभरे हैं | भारत के उच्च वर्ग ने नवउदारवाद की उन्हीं नीतियों के तहत मित्र-पूंजीवादी रास्ते पर चलकर पिछले दो दशकों में बेशुमार परिसंपत्तियां एकत्रित की हैं , जिनकी नींव मनमोहनसिंह ने ही रखी थी | जब वे भारत के उद्योगपतियों और धनाड्यों से सामाजिक भद्रता के पालन की बात कहते है , तो इसमें उच्च वर्ग के ही स्वार्थों को साधने का मंतव्य छिपा रहता है | मनमोहनसिंह अच्छी तरह से जानते हैं कि तुलनात्मक रूप से थोड़ा भी औचित्यपूर्ण दिखने वाले समाज में उच्च वर्ग के प्रति विद्रोह की संभावनाएं लगभग निर्मूल हो जाती हैं | इसलिए वे उच्च वर्ग को वैभव के अभद्रतापूर्ण प्रदर्शन से बाज आने को कहते हैं | पर , वे भी उस उच्च वर्ग को , जिसने सरकार से करों में अनाप शनाप रियायतें , मुफ्त में जमीनें और कौडियों के मोल लायसेंस प्राप्त करके अपनी परिसंपत्तियों में दिन-दूना , रात-चौगुना इजाफा किया है , देश की जनता के प्रति उसके कर्तव्य का बोध नहीं कराते |

एक प्रबुद्ध शासक वर्ग अच्छी तरह जानता है कि न केवल उसकी धन-संपदा में वृद्धि बल्कि लगातार तेज वृद्धि और उसकी सुरक्षा तभी सुनिश्चित हो सकती है , जब इस समृद्धता का एक अंश व्यापक रूप से समाज के निचले तबकों में जाये , सरकारें विकास के परिणामों को आंशिक रूप से ही सही , पर समाज के मध्यवर्गीय और निचले तबकों तक ले जाएँ और एकदम निचले तबके को फौरी स्वास्थ्य सुविधायें और जीवित रहने लायक खाद्य सामग्री उपलब्ध हो सके | ऐसा न होने पर शासक वर्ग का शासक वर्ग बने रहना मुश्किल होता जायेगा | वर्ष 2007 से पैदा हुई आर्थिक मंदी के दौरान करोड़ों लोगों को बेरोजगार करके भूखे मरने के लिये छोड़ देने वाले और स्वयं सीईओ बनकर करोड़ों रुपया सालाना वेतन और सरकारों से अरबों रुपयों के पैकेज डकारने वाले उद्योगपतियों को , अमेरिका के बिलगेट्स से लेकर भारत के अजीज प्रेमजी तक को , यदि अचानक अब समाज के प्रति उत्तरदायित्व का बोध हो रहा है , तो उसकी बुनियाद में चिंता वर्त्तमान व्यवस्था को पूर्ण रूप से सुरक्षित रखने की ही है | रतन टाटा भारतीय उद्योगपतियों के इसी प्रबुद्ध हिस्से का प्रतिनिधित्व करते हैं |

भारत में , पिछले दो ढाई दशकों में जो हास्यास्पद परिस्थिति निर्मित हुई है , वह यह है कि देश के शासक वर्ग ने सम्पूर्ण भारतीय समाज से सभी प्रकार के सरोकार तोड़ लिये हैं | जिसकी परिणिती , पहले , हमने किसानों की आत्महत्याओं , बेनामी और जालसाज कंपनियों के द्वारा जनता को लूटे जाने , हर्षद मेहता जैसे घोटालों , बंद होते लघु उद्योगों , बेरोजगार होते लोगों और बेरोजगार घूमते नौजवानों के रूप में देखी और अब किसानों से औने पौने दामों में उनकी पैतृक जमीन छीने जाने , नौकरीपेशा लोगों के पेंशन अधिकारों में कटौती , खाद्य पदार्थों के भावों में बेतहाशा वृद्धि , पेट्रोलियम पदार्थों के दामों मंक लगातार वृद्धि , खुदरा में विदेशी निवेश को लाने की तैय्यारी , आम आदमी के ऊपर सेवाकर सहित , सभी करों का दायरा लगातार बढ़ाये जाने और वित्तीय क्षेत्र को धीरे धीरे विदेशी पूंजी के हवाले करने के रूप में देख रहे हैं | जबकि , इस मध्य , यह उच्च वर्ग स्वयं के पूंजीगत लाभों तथा मुनाफों के हिस्सों पर टेक्स कम करवाने के लिये लगातार लाबिंग करता रहा | इस वर्ग के पास सरकारी तंत्र को प्रभावित करने की यह ताकत उस दौलत के बदौलत आती है , जो उसने सर्वदा मौजूद मित्र-पूंजीवाद की सहायता से तिकड़में करके कालाबाजारी , जमाखोरी और मुनाफाखोरी के जरिये कमाई है | इसी का एक अंश वो राजनीतिज्ञों के चुनाव प्रचार में खर्च करता है और फिर उनसे अपने पक्ष में मनचाही नीतियां बनवाता है |

रतन टाटा देश में मौजूद और लगातार बढ़ती असमानता पर चिंता व्यक्त करते हैं , पर , जिस प्रश्न पर वे चुप्पी बनाये रखते हैं , वह यह है कि देश के शासक वर्ग में शामिल ये उद्योगपति , धनाड्य और नवधनाड्य देश को ये बताएं कि पिछले तीस वर्षों में वे देश के सौ करोड़ लोगों की तुलना में अधिक धनी कैसे बन गये और स्वयं के ऊपर लगाए जाने वाले टेक्सों में कमी करने के लिये , बेजा छूटें पाने के लिये , औने पौने दामों में जमीनें और लायसेंस हड़पने के लिये उन्होंने सरकारों के ऊपर कितना दबाव बनाया है ? भारतीयों का विदेश में जमा कालाधन , राजनीतिज्ञों , नौकरशाहों और उच्चवर्ग की मिलीभगत से फैले भ्रष्टाचार के दोषियों के खिलाफ कठोर कार्रवाई निहायत जरूरी है , इससे किसी को इनकार नहीं हो सकता | पर , उतना ही या उससे भी ज्यादा जरूरी उस सफ़ेद धन के एकत्रीकरण पर अंकुश लगाना और उसे बाहर निकालना भी है , जो मित्र-पूंजीवाद की सहायता से उच्चवर्ग ने अनाप-शनाप तरीकों से एकत्रित किया है और करते जा रहे हैं | थोड़ी सी ही बुद्धी लगाने से यह समझ में आ सकता है कि यदि देश से बाहर गया खरबों रुपये का काला धन पूरा का पूरा सरकारी खजाने में आ भी जाये , भ्रष्टाचारियों से हड़पी गयी लाखों करोड़ की राशी पूरी की पूरी वसूल भी हो जाये , तब भी इसकी गारंटी क्या है कि ये उच्च वर्ग सरकारों के ऊपर दबाब बनाकर नीतियां ही ऐसी नहीं बनवा लेगा कि सरकारी राजस्व का बहुतायत हिस्सा फिर उनकी तिजोरी में पहुँच जाये | यही वह बिंदु है , जहां पहुंचकर उच्चवर्ग के देश और देश के लोगों के प्रति दायित्व बोध का प्रश्न सामने आता है |

यदि उच्चवर्ग को वाकई देश और देशवासियों के प्रति कर्तव्यों और दायित्व का बोध है तो उसे जनता के ऊपर लगातार टेक्स बढ़ाने , सामाजिक कल्याण के खर्चों में कटौती करने और अनुदान राशियों में कटौती करने की सलाहें सरकारों को देने के बजाय , सरकार से स्वयं के लिये कर छूटें , मुफ्त जमीनें मांगना बंद करके स्वयं को अधिक कर देने के लिये और सार्वजनिक क्षेत्रों में निवेश करने के लिये प्रस्तुत करना चाहिये , ताकि देशवासियों के सामने सम्भावनाओं के द्वार खुलें और उनके जीवनस्तर में सुधार हो सके | पर , आज , भारत में तो यह वर्ग धनलोलुपता में ग्रस्त और साधारण नागरिक दायित्व बोध से भी दूर नजर आता है |

अरुण कान्त शुक्ला

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