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महँगाई : ऐसे विकास से तौबा –

दबंग आवाज
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महँगाईः ऐसे विकास से तौबा –

प्रसिद्ध अर्थशास्त्री जान मेनार्ड कीन्स ने कहा था कि कोई भी सरकार मुद्रास्फिति की लगातार जारी प्रक्रिया के जरिये बिना किसी की नजर में आये , गोपनीय ढंग से अपने नागरिकों की संपत्ति का एक बड़ा हिस्सा हड़प सकती है | यूपीए की सरकार ने पिछले सात वर्षों में यही किया है | भाजपा नीत एनडीए सरकार में वित्तमंत्री रह चुके यशवंत सिन्हा ने लोकसभा में नियम 184 के तहत महंगाई पर हुई बहस की शुरुवात करते हुए दो महत्वपूर्ण बातें कही हैं | प्रथम यह कि , महंगाई गरीबों पर अघोषित टेक्स है और यदि सरकार महँगाई को काबू नहीं कर सकती है तो भगवान के लिये उसे गद्दी छोड़ देनी चाहिये और दूसरी यह कि किसी भी कीमत पर विकास की सोच खत्म होनी चाहिये और अगर विकास का मतलब महँगाई है तो इस तरह के विकास की देश को जरुरत नहीं है |

यह सभी जानते हैं कि मनमोहनसिंह और यशवंत सिन्हा दोनों जिस राजनीतिक अर्थशास्त्र के अनुयायी हैं , वह कीन्स की राह का नहीं है | यदि मनमोहनसिंह को इस बात का श्रेय है कि उन्होंने 20वीं सदी के अंतिम दशक में भारत में नवउदारवाद के रीगनी और थेचरी सिद्धांतों को भारत में लागू किया तो यशवंत सिन्हा ने भी एनडीए के शासन काल में वित्तमंत्री रहते हुए उन रीगनी और थेचरी सिद्धांतों को आगे बढ़ाने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी थी | जब वे वित्तमंत्री थे तो उनके दिमाग में कीन्स नहीं एडम , रिकार्डो और ताजातरीन मिल्टन थे | लोकसभा के अंदर और बाहर , दोनों जगह , भाजपा , कांग्रेस की आर्थिक नीतियों पर कितने ही वार क्यों न करे , लेकिन , मनमोहनसिंह से इस श्रेय को नहीं छीना जा सकता कि उन्होंने भारत के दक्षिणपंथी राजनीतिक दलों के अंदर मुक्त बाजार-मुक्त व्यापार की नीतियों के सवाल पर एक अदभुत एकता कायम कर दी है और जब कांग्रेस सत्ता में रहती है तो आर्थिक सवालों पर भाजपा उसकी मदद करती है और जब भाजपा सत्ता में थी तो कांग्रेस उसकी मदद करती थी | वरना , विश्व व्यापार संगठन में शामिल होने से लेकर , बीमा-बैंक में विदेशी निवेश , सिंगल ब्रांड कमोडिटी में विदेशी निवेश , खाद्यान्नों में वायदा कारोबार की अनुमति , पेट्रोल डीजल को नियंत्रण मुक्त करना , कुछ भी संभव नहीं हो पाता |

बहरहाल , यशवंत सिन्हा यदि स्वयं वित्तमंत्री या प्रधानमंत्री होते तो अपने कहे पर कितना अमल करते , इस प्रश्न को अलग कर दिया जाये तो उन्होंने लोकसभा में महँगाई पर नूराकुश्ती की शुरुवात करते हुए जब यह कहा कि किसी भी कीमत पर विकास की सोच खत्म होनी चाहिये और अगर विकास का मतलब महँगाई है तो इस तरह के विकास की इस देश को जरुरत नहीं है , तब , वे वर्त्तमान विकास के तौर तरीकों और परिणामों के प्रति देश के करोड़ों लोगों के दिमाग में पैदा हो चुकी वितृष्णा को ही व्यक्त कर रहे थे | भूमंडलीकरण की नीतियों के खिलाफ यह वितृष्णा आज विश्व के सभी देशों के गरीब और मध्यम वर्गीय आवाम के दिलो-दिमाग में घर कर चुकी है , क्योंकि , अमूमन सभी देश आज मुक्त व्यापार और मुक्त बाजार की नीतियों पर ही चल रहे हैं | हाल ही में ट्यूनीशिया , मिश्र और अन्य देशों में हुए जन-विरोध को मात्र वहाँ के शासकों के खिलाफ असंतोष या प्रचारित तौर पर लोकतंत्र की जन आकांक्षा के रूप में भर देखना जनता के असंतोष का सही मूल्यांकन नहीं होगा | इस असंतोष के पीछे एक बड़े कारण के रूप में भूमंडलीकरण और नवउदारवाद की वो नीतियां भी हैं , जिनके चलते लोगों के जीवन स्तर में भारी गिरावट आई , बेरोजगारी बढ़ी और यहाँ तक कि कई देशों में ब्रेड की बढ़ी हुई कीमतों की वजह से दंगे तक हुए |

ऐसा नहीं है कि विश्व के अगड़े देश विकास के वर्त्तमान ढांचे के विध्वंसात्मक परिणामों से अछूते हैं | अमरीका स्वयं ऋण भुगतान के संकट से गुजर रहा है | बराक ओबामा की सरकार ऋण सीमा बढ़वाने में कामयाब हुई है , लेकिन इसके लिये उसे 2000 अरब डालर की कटौती पर हामी भरनी पड़ी है | ऋण सीमा नहीं बढ़ाई जाती तो सरकारी कर्मचारियों के वेतन के भी लाले पड़ जाते | अब ऋण सीमा बढ़ाने के बाद सरकार रोजगार , चिकित्सा , पेंशन , वेतन , फ़ूड कूपन पर होने वाले सरकारी निवेश में कमी करेगी याने कुल मार घूम फिरकर अमेरिका के सामान्य जनों पर ही पड़ने वाली है | यह तब होगा जब हर सातवाँ अमेरिकी रोटी के लिये सरकारी मदद का मोहताज है | यही हाल ग्रीस , इटली , स्पेन और अन्य देशों का है , जिन्हें , भुगतान संकट से बचने के लिये विश्व बैंक जैसी संस्थाएं सार्वजनिक निवेश में कमी करने का नुस्खा दे रही हैं , जो वहाँ के लोगों के जीवन को और बदहाल ही बनाएगा | यही कारण है कि पिछले वर्षों में विश्वव्यापार संगठन की जहां-जहां बैठकें हुईं , अमरीकी राष्ट्रपतियों को वहाँ भारी विरोध का सामना करना पड़ा | ग्रीस , इटली , फ्रांस , स्पेन , ब्रिटेन , अमेरिका सहित विश्व के अनेक देशों में वहाँ के कामगार , विद्यार्थी और आम जनता के अन्य तबके नवउदारवाद की नीतियों के विरोध में लंबे संघर्षों में उतरे हैं | स्वयं हमारे देश में भ्रष्टाचार और काले धन के सवाल पर आम जनता का बड़ा हिस्सा जिस स्वतःस्फूर्त ढंग से सड़क पर उतरा है , उसके पीछे भी नवउदारवाद की नीतियों के खिलाफ उसका आक्रोश ही है | फ्रांस में तो राजनीतिक दलों के मध्य भी भूमंडलीकरण की नीतियों के खिलाफ आवाज उठाने पर आम सहमती बनती दिखाई पड़ती है |

अर्थशास्त्रियों के बारे में एक पुराना चुटकुला है | तीन अर्थशास्त्री बदख का शिकार करने गये | पहले का निशाना बदखों से 20 मीटर आगे जाकर लगा | दूसरे का निशाना बदखों से 20 मीटर पीछे लगा | तीसरा अर्थशास्त्री बिना कुछ किये धरे जोर जोर से चिल्लाने लगा , वाह , हमने बदखों को मार गिराया , मार गिराया | लोकसभा में प्रणव मुखर्जी का जबाब तीसरे अर्थशास्त्री जैसा ही था , देश के वास्तविक हालातों से बहुत दूर , घिसा-पिटा और यांत्रिक | जबाब से जो लब्बोलुआब सामने आया वह यही था कि सरकार का काम कमोडिटी या बाजार को नियंत्रित करना नहीं है और न वस्तुओं की कीमतों को नियंत्रित किया जा सकता है और न ही महँगाई को नियंत्रित करने की कोई योजना सरकार के पास है | सभी जानते हैं कि 1991 के बाद से आयीं सभी सरकारें विकास दर के मामले में बहुत चिंतित रहती हैं | कहीं उस विकास दर पर कोई आंच न आये इसलिए प्रणव मुखर्जी ने बहुत जोरदार तरीके से स्थापित करने की कोशिश की कि विकास का महँगाई से कोई लेना देना नहीं है | महँगाई शुद्ध मांग-आपूर्ति का मामला है | याने आप मांग रहे हैं , पर पूर्ति नहीं हो पा रही , इसलिए महँगाई बढ़ रही है | अपरोक्ष रूप से वे खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश की आवश्यकता को ही बल दे रहे थे |

बहरहाल , वे चाहें मनमोहनसिंह हों या मंटोकसिंह ,चिदंबरम , प्रणव मुखर्जी , यशवंत सिन्हा हों या रिजर्व बैंक , सेबी और ट्राई के अध्यक्ष , उनके लिये विकास का मतलब मात्र विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों और देशी उद्योगपतियों के लिये निवेश की संभावनाओं को बढ़ाना और बाजार को मुक्त छोड़ देना ही है | उन्हें भारत के उस वर्ग की कोई चिंता नहीं है , जिसकी आय पिछले पिछले कई वर्षों में नहीं के बराबर बढ़ी है , जिसमें खेतिहर मजदूर और बेरोजगार शामिल हैं , जो दो वक्त की रोटी मुश्किल से जुटा पाते हैं | भूमंडलीकरण और नवउदारवाद के बीस वर्षों के अनुभव ने हमें बता दिया है कि मनमोहनसिंह ने अर्थव्यवस्था कि जिस माडल को इस देश के लिये स्वीकार किया है , वह जनता के बहुसंख्यक हिस्से के जीवन स्तर को गिराने वाला है | उसमें कृषि का उद्देश्य भोजन के लिये खाद्यान्न पैदा करना न होकर , मुनाफ़ा कमाना है | उसमें स्वास्थ्य सेवाएँ मुनाफे के लिये हैं और आम लोगों के स्वास्थ्य की रक्षा का उद्देश्य गौण | उसमें शिक्षा मुनाफ़ा कमाने का जरिया है और शिक्षा की उपलब्धता के अवसर लोगों को मुहैय्या कराने का उद्देश्य गौण है | उसमें बाजार लोगों को उनकी जरुरत के सामान मुहैय्या कराने की जगह जमाखोरी करके मुनाफ़ा कमाने के लिये है | ऐसे विकास की जरुरत मनमोहनसिंह के इंडिया को भले हो , पर 20 रुपये रोज पर गुजारा करने वाले सत्तर करोड़ लोगों के भारत को नहीं है | वे ऐसे विकास से तौबा करते हैं | इसे हमारे देश की सरकारें और राजनीतिज्ञ जितनी जल्द समझ जाएँ , उतना बेहतर होगा |

अरुण कान्त शुक्ला

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