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गरीबी नहीं , कंगाली की रेखा —

दबंग आवाज
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गरीबी नहीं , कंगाली की रेखा –

ऐसा प्रतीत होता है कि यूपीए सरकार के पास अपनी दूसरी पारी में देशवासियों को देने के लिये कुछ भी अच्छा नहीं है | यूपीए-2 के कार्यकाल के पिछले लगभग ढाई वर्षों में देश की जनता के उस हिस्से को , जिसे सरकार से राहतों की उम्मीद रहती है , महँगाई और भ्रष्टाचार के कड़वे घूंटों के अलावा कुछ नहीं मिला है | सर्वोच्च न्यायालय में पेश , प्रधानमंत्री से अनुमोदित शपथ-पत्र , जिसमें गरीबी रेखा को शहरी क्षेत्रों के लिये 20 रुपये से बढ़ाकर 32 रुपये और गाँवों के लिये 15 रुपये से बढ़ाकर 26 रुपये किया गया है , एक और कड़वा घूंट है , जिसे यूपीए सरकार देशवासियों को पिला रही है |


गरीबी रेखा आय की वह सीमा है , जिसका निर्धारण सरकारें करती हैं और किसी परिवार की आय उस सीमा से नीचे जाने पर उस परिवार को आधिकारिक रूप से गरीब या गरीबी रेखा से नीचे माना जाता है , जिससे वह परिवार सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का हकदार बनता है | पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में समाज के वंचित तबकों के अथवा समाज के विभिन्न कमजोर वर्गों के जीवन स्तर को उन्नत करने वाले कदमों को उठाने से सरकार के ऊपर पड़ने वाले आर्थिक भार को फिजूल खर्ची समझा जाता है | विकसित देशों से लेकर विकासशील देशों तक , सभी देशों में कारपोरेट जगत और संपन्न तबका हमेशा सरकार के द्वारा कमजोर तबकों के लिये किये जा रहे कल्याणकारी कार्यों के ऊपर होने वाले खर्चों की खिलाफत में रहता है | सरकारें भी सामान्यतः कारपोरेट जगत और संपन्न तबके के दबाव में काम करते हुए हमेशा कल्याणकारी कामों से पीछा छुड़ाने की चेष्ठा करते ही नजर आती हैं | यही कारण है कि गरीबी रेखा के लिये न्यूनतम आय सीमा तय करते समय सरकार का भरसक प्रयत्न यही होता है कि यह मानक नीचे से नीचा हो ताकि गरीबों की संख्या कम से कम दिखाई दे | जब योजना आयोग के यह कहता है कि शहर में 32 रुपये प्रतिदिन और गाँवों में 26 रुपये प्रतिदिन खर्च कर सकने वाले को गरीब नहीं कहा जा सकता है , तो , उसके पीछे सरकारी कल्याणकारी योजनाओं के लाभ से अधिक से अधिक लोगों को बाहर रखने की मंशा ही है |


सरकार ने गरीबों की संख्या को लेकर देश में हमेशा ही भ्रम की स्थिति बने रहने दी | सरकारी आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2004 में गरीबी रेखा के नीचे जी रहे लोगों की संख्या जनसंख्या के 27.5% के बराबर थी , जो 2010 में बढ़कर 37.2% के करीब हो गयी | इसके ठीक विपरीत सरकार के द्वारा ही बनाई गयी अर्जुन सेनगुप्ता कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में उजागर किया था कि भारत में 70% लोग 20 रुपये प्रतिदिन से भी कम पर गुजारा करते हैं | उसके अनुसार देश में लगभग 70 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे जी रहे थे | जाहिर है सरकार ने उस रिपोर्ट को कभी मंजूर नहीं किया | मंजूर तो सरकार को संयुक्त राष्ट्र संघ का भी गरीबी का मानक कभी नहीं हुआ , जिसके अनुसार प्रतिदिन 1.25 डालर (आज के हिसाब से लगभग 60 रुपये) से कम पर गुजारा करने वालों को गरीबी रेखा से नीचे माना जाता है |


सर्वोच्च न्यायालय की फटकार पड़ने के बाद योजना आयोग के द्वारा गरीबी रेखा के मानक में किया गया वर्त्तमान सुधार भी पिछले मानकों के समान ही बेतुका और गरीबों का मखौल उड़ाने वाला है | कुछ समय पहले ही विश्वबैंक ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि गरीबी से लड़ने के भारत सरकार के प्रयास ही अपर्याप्त नहीं हैं बल्कि गरीबी रेखा के लिये निर्धारित मानक भी कुछ ज्यादा ही कम हैं | विश्वबैंक ने उम्मीद जताई थी कि भारत सरकार देश की वास्तविक स्थिति को देखकर उन मानकों को कम से कम 1.17 डालर याने लगभग 56 रुपये प्रतिदिन तक खर्च करने वाली आबादी तक अवश्य बढ़ाएगी | इसमे किसी को कोई संशय नहीं हो सकता कि बीसवीं सदी के अंतिम तीन दशकों में विश्वबैंक , आईएमएफ , और विश्व व्यापार संगठन विश्व में विकसित देशों की बहुउद्देशीय कंपनियों और संपन्न तबके के हितों को साधने वाले शक्तिशाली अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों के रूप में उभरे और इनके दबाव में प्रायः दुनिया के सभी देशों ने भूमंडलीकरण के नाम पर उन नवउदारवादी नीतियों और कार्यक्रमों को अपनाया , जिनकी वजह से पूरी दुनिया में गरीबों की संख्या में न केवल बढ़ोत्तरी हुई बल्कि उनके जीवनस्तर में भी तेज गिरावट आई | नवउदारवाद की नीतियों के लागू होने के दो दशकों के बाद ही प्रायः सभी देशों के गरीब तबकों और कमैय्या वर्ग के जीवनस्तर पर इस नीतियों के गंभीर दुष्परिणाम दिखने लगे थे और अंतिम दशक में संयुक्त राष्ट्र संघ सहित विश्वबैंक , आईएमएफ सभी को अंतर्राष्ट्रीय विकास लक्ष्यों में गरीबी उन्मूलन और भुखमरी से सबसे निचले तबके को बचाने के लक्ष्य को शामिल करना पड़ा | वर्ष 2000 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने जब सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य स्वीकार किये तो उसमें गरीबी और भुखमरी को 2015 तक 50% कम करने का लक्ष्य रखा गया | संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा घोषित गरीबी की रेखा का मानक पहले एक डालर प्रतिदिन था , जिसे 2005 में बढ़ाकर 1.25 प्रतिदिन किया गया |


यहाँ महत्वपूर्ण यह है कि विकसित देशों और विशेषकर अमेरिका तथा बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हितों को फायदा पहुंचाने के लिये अपनी शर्तों को दुनिया के देशों के ऊपर थोपने वाले विश्वबैंक , आईएमएफ ने गरीबी रेखा के मानक खुद तय करने की छूट सभी देशों को देकर रखी है और इसके लिये कभी भी कोई दबाव वे नहीं बनाते हैं | दरअसल , गरीबी और यदि उसे खत्म नहीं किया जा सकता है तो उसे कम करने की जरुरत पर प्रवचन करना , आज का फैशन बन गया है | यह बहुत कुछ उन्नीसवीं सदी में दान देने के लिये प्रोत्साहित करने को दिये जाने वाले प्रवचन के समान ही है | विश्वबैंक , आईएमएफ या संयुक्त राष्ट्र संघ ही क्यों आज वारेन बफेट और बिल गेटस भी यही कर रहे हैं | इनमें से कोई भी नहीं चाहता कि उस सामाजिक और आर्थिक रचनातंत्र पर कोई भी बातचीत हो , जो गरीबी का जनक है | जबकि आज के समाज में वो सामाजिक और तकनीकि क्षमता मौजूद है , जिससे गरीबी को समाप्त किया जा सकता है |


सच तो यह है कि भारत में 1991 से उदारीकरण की नीतियों के लागू होने के बाद से देश के कामगारों , स्वरोजगारियों और नौकरी पेशा लोगों की वास्तविक आय में भारी कमी हुई है और श्रम नियमों की तरफ से आँखें मूँद लेने के चलते कम से कम वेतन पर रखने और कम से कम मजदूरी देने की छूट छोटे से लेकर बड़े तक सभी तरह के नियोक्ताओं को मिली है , जिसका सीधा असर लोगों और परिवारों की आय पर पड़ा है | इसके परिणामस्वरुप बहुत से ऐसे परिवार जो ठीक ठाक गुजर बसर करते थे , एकदम से गरीबी की जद में आये हैं | 2008 से जारी आर्थिक मंदी और पिछले पांच वर्षों से लगातार बढ़ती हुई मंहगाई ने देश में करोड़ों लोगों को गरीबी की उस जद में ला पटका है , जहां कोई भी सरकारी सहायता मिलती नहीं और स्वयं की आय पर केवल एक बदहाल और अवसाद भरी जिंदगी ही जी जा सकती है | इस तरह , गरीबी की इस जद में देश की जनसंख्या का बहुत बड़ा हिस्सा है , जिसकी आय एक लाख रुपये सालाना से ऊपर तक है | इसमें प्राईवेट स्कूलों में काम करने वाले शिक्षक , सरकार के द्वारा नियुक्त शिक्षाकर्मी , मनरेगा के मजदूर , घरों में काम करने वाली बाईयां , दिहाड़ी मजदूर , दैनिक वेतनभोगी कर्मचारी , आटोचालक , फेरी से सब्जी बेचने वाले जैसे स्वरोजगार में लगे लोग , निजी अस्पतालों और दुकानों में काम करने वाले लोग , जैसे करोड़ों हैं , जिन्हें अमीरों की श्रेणी में रखना , उनके साथ एक भद्दा मजाक है | योजना आयोग की गरीबी की रेखा , गरीबी की नहीं कंगाली की रेखा है | गरीबी की जद में तो भारत के अस्सी प्रतिशत परिवार आयेंगे , जिसको स्वीकार करना , एक ऐसी सरकार के लिये कभी भी संभव नहीं है , जैसी कि हमारे देश में है |


अरुण कान्त शुक्ला

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