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मार्निंग बेल्स आर रिंगिंग –डिंग डिंग डांग , डिंग डिंग डांग .

दबंग आवाज
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मार्निंग बेल्स आर रिंगिंग –डिंग डिंग डांग , डिंग डिंग डांग ..


अब अरविन्द केजरीवाल और किरन बेदी के बीच ठन गई है | अरविंद केजरीवाल के यह कहने के बाद कि ऐसा फिर नहीं होगा , जो किरन ने किया , वह में कभी नहीं करता , किरन बेदी नाराज हो गईं हैं | बेदी का कहना है कि केजरीवाल ने मुद्दे को पूरी तरह नहीं समझा | अगर वह मुद्दे को अच्छी तरह समझते तो उनका जबाब अलग होता |


जो कुछ टीम अन्ना के अंदर चल रहा है , उससे , मेरा मन करता है कि अन्ना को नर्सरी के बच्चों को पढ़ाई जाने वाली कविता सुनाए जाये ;


आर यू स्लीपिंग , आर यू स्लीपिंग
ब्रदर जान , ब्रदर जान
मार्निंग बेल्स आर रिंगिंग , मार्निंग बेल्स आर रिंगिंग
डिंग डिंग डांग , डिंग डिंग डांग


कविता में सिर्फ ब्रदर जान की जगह अन्नाजी , अन्नाजी करने की जरुरत है | दरअसल , अपनी प्रारंभिक सफलताओं की खुमारी में डूबी टीम अन्ना को भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के सामने खड़ी दो गंभीर समस्याओं का अंदाज नहीं हो पा रहा है | दोनों में से लगातार बढ़ती मुद्रास्फिति और खाद्य पदार्थों की बढ़ती हुई मंहगाई को पहले स्थान पर रखा जा सकता है , जो आज देश के 100 करोड़ लोगों के लिये संस्थागत भ्रष्टाचार से भी ज्यादा त्रासदायी हो चुकी है | उनकी थाली में परोसी जाने वाली खाद्य वस्तुओं की मात्रा ही नहीं कम हो रही , बल्कि उस थाली में से कई सब्जियां , फल , दालें , दूध थाली से गायब हो चुके हैं | भारत का साधारण आदमी यदि थाली में से गायब की जा रही वस्तुओं से परेशान है , तो , उससे थोड़ा बेहतर , उसके साथ , बढ़ती ईएमआई . महंगी स्कूल फीस , बढ़ते मकान के किराए , सार्वजनिक परिवहन के बढ़ते खर्च , महंगी होती चिकित्सा और दवाईयां , बढ़ते पेट्रोल के दामों और मनोरंजन के साधनों के मंहगे होने से परेशान है | अन्ना टीम की इस अहं मुद्दे पर खामोशी से इस तबके को भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी का पूरा आंदोलन हाई प्रोफाईल सोच का लगने लगता है |


दूसरी समस्या का स्त्रोत स्वयं अन्ना टीम है , जिसके सदस्य आचरण और व्यवहार में स्वयं का प्रदर्शन उन राजनीतिक ठगों के समान ही कर रहे हैं , जिनके खिलाफ वो तीर चलाते रहते हैं | टीम आना के सदस्य एक के बाद एक , या तो स्वयं की साख गिरा रहे हैं या आंदोलन से ही किनारे होते जा रहे हैं | इसमें ताजा एपीसोड किरन बेदी का है | शायद ही कोई हो , जिसने इस बात पर ध्यान न दिया हो कि किरन बेदी बड़ी आसानी के साथ खुद तथा खुद के एनजीओ के बीच एक हवाई लाइन खींचकर लोगों के भ्रमित करने में लगी हैं | किन्तु , उनसे कोई यदि यह पूछे कि इस तरह ज्यादा यात्रा-व्यय दिखाकर पैसा एकत्रित करना क्या उनके एनजीओ के कामों में शामिल है , तो वे नाराज हो जाती हैं | प्रश्न यह है कि उनको आमंत्रित करने वाली संस्थाएं , उनके एनजीओ को दान देने की इतनी इच्छुक थीं , तो वे उनसे कहकर उस राशी को प्राप्त कर सकती थीं , वनिस्पत इस सारे चक्कर को करने के | पर , किरन बेदी इसे कभी स्वीकार नहीं करेंगी , और उन सब पर बिफरती रहेंगी , जो इसे गलत कहेगा , जैसा कि अभी वो केजरीवाल के साथ कर रही हैं | यही काम अरविंद केजरीवाल ने स्वयं के मामले में किया है |


मतलब साफ़ है , यदि अन्ना टीम का कोई सदस्य गलत करता है तो उनके पास ढेरों स्पष्टीकरण , औचित्य और प्रतिदावे हैं , किन्तु अन्य किसी से वे कोई तर्क या स्पष्टीकरण सुनना पसंद नहीं करेंगे , औचित्य और अनौचित्य तो दूर की बात है | इससे भी बदतर यह कि टीम अन्ना और उनके समर्थक किसी भी परिस्थिति , घटनाक्रम पर न तो पुनरावलोकन , न ही चिंतन और न ही आत्म विश्लेषण के लिये तैयार हैं | उनकी यह शैली , शनैः शनैः आंदोलन से विचारवान लोगों को दूर करके आंदोलन को जड़ लोगों के आंदोलन में तब्दील करती जा रही है | यदि कोई अन्ना की टीम या आंदोलन के संबंध में कुछ भी ऐसा कहे जो टीम अन्ना को पसंद नहीं तो वे कहने वाले को तुरंत ही कांग्रेस का भाड़े का टट्टू बोलना शुरू कर देंगे | अन्ना अथवा उनके आंदोलन की कोई भी आलोचना उनके समर्थक बर्दाश्त नहीं करेंगे और विरोध में उनकी भाषा संयम की कोई भी सीमा नहीं मानेगी | मेरी समझ में तो ऐसा करके वो यही दिखा रहे हैं कि मुद्दा जरुर उनके पास ठोस है लेकिन आचरण में , वे कांग्रेस या फिर अन्य किसी बुर्जुआ राजनीतिक दल की टीम से अलग नहीं |


इसमें कोई शक नहीं कि देश को एक सख्त लोकपाल बिल की जरुरत है | हमें आशा करनी चाहिये कि पिछले लगभग दो वर्षों के घटनाक्रमों ने कांग्रेस सहित सभी राजनीतिक दलों की आँखें खोल दी होंगी और शीतकालीन सत्र में संसद एक शक्तिशाली और ठोस लोकपाल देश को देगा | उसके बावजूद , आज की सबसे बड़ी और फौरी आवश्यकता मुद्रास्फिति पर काबू करने और खाद्यान की कीमतों को नीचे लाने की है | डर इस बात का है कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के प्रति अन्ना और उनकी टीम की अक्खड और उन्मुक्त सोच कहीं देश को ऐसे वातावरण में न धकेल दे कि देश के लोगों को भ्रष्टाचार और महँगाई की दोहरी मार आने वाले आम चुनावों तक झेलना पड़े | यदि ऐसा हुआ तो साधारण आदमी के लिये उससे ज्यादा विनाशकारी और क्या होगा ?


अरुण कान्त शुक्ला

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