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प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के पीछे का सच –

दबंग आवाज
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प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के पीछे का सच –

यह संयोग तो कदापि नहीं है कि यूरोप के आर्थिक संकट से थर्राये भारतीय उद्योगपति जब विश्व आर्थिक फोरम के अंतर्गत आयोजित भारत आर्थिक सम्मेलन में सरकार से ताबड़तोड़ नीतिगत कदम उठाने और विदेश में छाई आर्थिक सुस्ती से भारत में पूंजी प्रवाह कम न होने देने की मांग कर रहे थे , तब , कोलकाता में उद्योग चेंबर एसोचेम के सदस्यों को वित्तमंत्री दिलासा दे रहे थे कि वैश्विक आर्थिक संकट का भारत पर असर तो हुआ है लेकिन इससे घबराने की जरुरत नहीं है और इससे निपटने के लिये सरकार कठोर कदम उठाने से नहीं हिचकेगी | एक सप्ताह के भीतर ही केन्द्र सरकार ने पेंशन सेक्टर में 26% तथा मल्टीब्रांड रिटेल में 51% प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को अनुमति देने के साथ सिंगल ब्रांड में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा को 51% से बढ़ाकर 100% करके बता दिया कि भारत के सबसे बड़े टेक्नोक्रेट , हमारे प्रधानमंत्री के अंदर बसी एडम स्मिथ की आत्मा भले ही लोगों को सुप्त लग रही हो , पर , वो अभी भी पूरी तरह जागृत है |


दरअसल , आज जब भारत सरकार या हमारे देश के प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह , उदारीकरण का नया दौर लागू करने जा रहे हैं , तब , हमारे देश की अर्थव्यवस्था लगभग उसी दशा से गुजर रही है , जैसी कि वो 1991 में थी , जब मनमोहनसिंह के वित्तमंत्री रहते हुए भारत में उदारीकरण के सुधारों को प्रारंभ किया गया था | जो 1991 के दौर से गुजरे हैं , वो जानते हैं कि अर्थव्यवस्था आज भी उतनी ही अनिश्चितता और अस्थिरता से गुजर रही है , जैसी कि वो 1991 में थी | भारतीय मुद्रा का मूल्य डालर के मुकाबले लगातार गिरता जा रहा है | विदेशी मुद्रा का प्रवाह ही नहीं रुका है , घरेलु बाजार से लगभग सवा खरब रुपये की विदेशी मुद्रा पिछले कुछ समय में पलायन कर चुकी है | बजट घाटा लगातार बढ़ता जा रहा है | व्यापार घाटा सुरसा के मुहँ के समान फैलता जा रहा है | मनमोहनसिंह हर आलोचना के जबाब में जिस विकास दर का दंभ भरा करते थे , वह इस वर्ष 7.5% भी रहे तो गनीमत है | कुल मिलाकर अर्थशास्त्र का साधारण जानकार भी कह सकता है कि जो कुछ भी हो रहा है , वह निराशाजनक है | भारतीय अर्थव्यवस्था आज जिस दौर से गुजर रही है , वह समय मांग कर रहा है कि उदारीकरण के दो दशकों की समीक्षा कर सतर्कता के साथ फैसले लिये जायें | पर , मनमोहन सरकार ऐसा करने के बजाये , एक बार फिर से देशवासियों को अमृत बताकर उदारीकरण का विष पीने को कह रही है |


एक पुरानी कहावत है कि जब सब कुछ निराशाजनक हो तो दुस्साहसी बनना चाहिये और 1991 के बाद भारत सरकार एक बार पुनः दुस्साहसी बन रही है | पिछले एक सप्ताह के दौरान विदेशी प्रत्यक्ष निवेश को लुभाने के लिये केन्द्र सरकार के द्वारा उठाये गये कदम उसी दुस्साहस का प्रतीक हैं | दर्दनाक यह है कि भारत सरकार का यह दुस्साहस भारत के मजदूरों , किसानों और वंचित तबके के प्रति अपनी प्राथमिक सामाजिक और आर्थिक जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिये न होकर , देश में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले 30 करोड़ देशवासियों , देश के कुल बच्चों में से 40% कुपोषित बच्चों की छाती पर पाँव रखकर , भारत के उद्योग जगत और संपन्न तबके को खुश करने तथा अमेरिका और यूरोप के रईस देशों की मालदार कंपनियों को मंदी के दौर से निकालने के लिये है , जिसके लिये साम्राज्यवादी देशों के तरफ से पिछले लंबे समय से भारत के ऊपर दबाव बना हुआ था | कुछ समय पूर्व वाशिंगटन में हुई अमेरिका–भारत आर्थिक और वित्तीय सहयोग परिषद की बैठक में अमेरिका के ट्रेजरी सेक्रेटरी टिमोथी गीथनर ने लगभग फटकार लगाते हुए कहा था कि अमेरिकन कंपनियां अभी भी भारत में बीमा , बैंकिंग , मल्टीब्रांड रिटेल और ढांचागत क्षेत्रों में रुकावटों का सामना कर रही हैं , जिसके फलस्वरूप दोनों देशों में रोजगार सृजन और आर्थिक विकास अवरुद्ध है | यदि भारत को मजबूत विकास दर की अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करना है तो उसे पर्याप्त विदेशी निवेश आकर्षित करने के लिये ठोस कदम उठाने के साथ घरेलु स्तर पर भी बाजार को निवेश मुहैय्या कराना होगा | यही तभी हो सकता है , जब भारत लंबित पड़े आर्थिक और वित्तीय सुधारों को तेजी से और तुरंत लागू करे | वह चाहे पीएफआरडीए जैसा घृणित क़ानून बनाकर लगभग 48 करोड़ कामगारों की गाढ़ी कमाई विदेशी और देशी पूंजी के हवाले करने का मामला हो या मल्टी रिटेल में 51% और सिंगल ब्रांड रिटेल में विदेशी निवेश की सीमा को 51% से बढ़ाकर 100% करके जमीन , फसल और उत्पादों को विदेशी प्रबंधन को सौंपने का मामला हो , सभी कदम अंतर्राष्ट्रीय और घरेलु बड़ी पूंजी के निर्देशों के अनुसार ही उठाये जा रहे हैं | इन कदमों का परिणाम , पीएफआरडीए के मामले में चाहे कितने ही दावे भारत सरकार और उसके पिठ्ठू अर्थशास्त्री क्यों न कर लें , कामगारों की जीवन भर की कमाई लुटेरों के हाथों में सौंपने के अलावा कुछ नहीं है | लोकसभा में पास होने के बाद पीएफआरडीए 2011 क़ानून बन जायेगा और भले ही किसी न्यायालय में इसे चुनौती न दी जा सके , लेकिन नैतिकता की अदालत में सरकार का यह काम हमेशा घृणित ही ठहराया जायेगा कि उसने देश के 48 करोड़ कामगारों को कान पकड़कर अपने जीवन भर की कमाई को जुएं में लगाने को मजबूर किया , क्योंकि वह कमाई उसके पास जमा करने के अलावा कोई दूसरा चारा उन कामगारों के पास नहीं था |


इसी तरह , भारत सरकार और वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा तीन वर्षों में एक करोड़ रोजगार पैदा होने , किसानों को वाजिब मूल्य प्राप्त होने और उपभोक्ताओं को वाजिब दामों पर सामग्री मिलने के कितने भी दावे क्यों न कर लें , वास्तविकता और अन्य देशों के अनुभव यही बताते हैं कि कि देश के छोटे किसान , छोटे फार्म्स और छोटी ओद्योगिक इकाइयां , विदेशी पूंजी के द्वारा संचालित संगठित रिटेल की जरूरतों की पूर्ति , बड़े घरेलु आपूर्तिकर्ताओं और विदेशी रिटेल आपूर्तिकर्ताओं की प्रतियोगिता के सामने नहीं कर पाएंगी और उन्हें या तो बिकना है या बर्बाद होना है | एक करोड़ रोजगार के अवसर भले ही पैदा हों , पर , वो होंगे खुदरा व्यापार में लगे पांच करोड़ से ज्यादा स्वरोजगारियों और रोजगार शुदा लोगों के रोजगार खोने की कीमत पर ही | इसमें कोई शक नहीं कि यदि मल्टीब्रांड में विदेशी निवेश आ जाता है तो कुछ समय के बाद बाजार विदेशी उत्पादों और वस्तुओं से भर जायेगा और देशी उत्पादकों को बर्बाद होना पड़ेगा | फार्मस , आपूर्ति श्रंखला और गोदाम क्षमता विकसित होने के बाद एकाधिकार बड़े नैगमों के पास ही होगा , उससे जमाखोरी और मुनाफाखोरी ही बढ़ेगी | ऐसी परिस्थिति में उपभोक्ताओं को कम दाम पर उत्पाद मिलने की बात एक मरीचिका पैदा करने के अलावा कुछ नहीं है |


एक ऐसे देश में जहां जनसंख्या का 70% हिस्सा आज भी गाँवों में रहता हो | जहां दुनिया के कुल गरीबों का 40% हस्सा बसता हो | जहां के 78% लोग 20 रुपये से भी काम पर गुजारा करते हों , उस देश के 10 लाख से ज्यादा की आबादी वाले 54 शहरों में खुलने वाले सुपरबाजार राष्ट्र के किस हिस्से का हित ध्यान में रखेंगे , इसे आसानी से समझा जा सकता है |

अरुण कान्त शुक्ला

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