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परी कथाओं से पेट नहीं भरता –

दबंग आवाज
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परी कथाओं से पेट नहीं भरता –

नवउदारवाद और भूमंडलीकरण के भारत में प्रवेश के दो दशकों में राजनीतिज्ञों , अर्थशास्त्रियों , उद्यमियों , बुद्धिजीवियों और बाजार के तथाकथित रणनीतिकारों की ऐसी जमात देश में तैयार हो गई है , जो उदारीकरण या सुधारों की सारे की सारी नीतियों को दादी माँ की परी कथाओं के समान पेश करने में लगी हुई है | भारत में विदेशी पूंजी को प्रवेश देने के सवाल पर ये पूरी जमात इतनी सम्मोहित है कि उन्हें विदेशी कंपनियों का देश के क़ानून को तोड़ना , जमीनों पर बेजा कब्जा करना , श्रम कानूनों का उल्लंघन करना और देश में कमाए गये लाभ को नियमों और कानूनों को धता बताकर देश के बाहर ले जाना भी इसका प्रमाण लगता है कि विदेशी पूंजी को भारत में खुले और आबाध तौर पर आने दिया जाये |


ये (कु)तर्क तब भी दिये गये थे , जब बीमा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का विरोध हुआ था और आज जब खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का विरोध हो रहा है , तब भी ये (कु)तर्क दिये जा रहे हैं | इनके द्वारा पेश किये जा रहे आंकड़ों से इतर यदि देखा जाये तो बीमा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से जिस मात्रा में विदेशी पूंजी के देश में आने , रोजगार पैदा होने और आम आदमी को बीमा सुलभ होने का , जो सपना दिखाया गया था , उसमें से एक तिहाई की पूर्ति भी हुई हो तो गनीमत है | उल्टे , इन कंपनियों ने आने के बाद शेयर मार्केट पर आधारित बीमा की ऐसी लहर चलाई , जिसमें बीमा की मूल अवधारणा तो खो ही गई , बीमा धारकों के बड़े हिस्से को शेयर मार्केट के गच्चों का अनुभव भी हो गया |


अभी कुछ दिन पहले समाचार आया था कि भारत सरकार के अनेक विभागों में अति महत्वपूर्ण पद इसलिए खाली पड़े हैं क्योंकि सरकार उन पदों पर टेक्नोक्रेट्स को नियुक्त करना चाहती है | मेरे विचार से टेक्नोक्रेट (प्रोफेशनल) , चाहे वह किसी भी क्षेत्र से क्यों न जुड़ा हो , एक ऐसा व्यक्ति है , जो आंकड़ों की ऐसी परिकथा में खोया रहता है , जिसका समाज की वास्तविकताओं से कोई संबंध नहीं रहता और जिसके सपनों को पूरा करने की बहुत क्रूर कीमत देश के गरीब और कामगार तबकों को चुकानी पड़ती है | क्या इस सच को कोई झुठला सकता है कि एक टेक्नोक्रेट वित्तमंत्री के द्वारा प्रारंभ की गईं नीतियों की वजह से ही पिछले दो दशकों में दो लाख से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की है | देश में प्रधानमंत्री , वित्तमंत्री , योजना आयोग के अध्यक्ष , प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार , रिजर्व बैंक के गवर्नर सभी टेक्नोक्रेट हैं और पिछले चार सालों में महँगाई पर नियंत्रण पा लेने की उनकी सारी घोषणाएं गलत सिद्ध हुई हैं |


खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश बिखरे खुदरा क्षेत्र को संगठित करेगा या नहीं , रोजगार निर्माण होंगे या नहीं , सप्लाई चेन और कोल्ड स्टोरेज ढांचा ठीक होगा या नहीं , इस संबंध में वर्ष 2009 में लोकसभा की स्थायी समिती (वाणिज्य) ने अपनी 90वीं रिपोर्ट में स्पष्ट निष्कर्ष दिये हैं | यह रिपोर्ट नेट पर भी उपलब्ध है | कमेटी के निष्कर्ष और सरकार की पहल के बीच का अंतर स्वयं अंदर के सारी कहानी कह देता है | रिपोर्ट के अनुसार कमेटी का स्पष्ट निष्कर्ष था कि भारत के खुदरा व्यापार में विदेशी एकल ब्रांड की भारी भरकम कंपनियों से विदेशी निवेश आमंत्रित करने से भारत के खुदरा व्यापारी हाशिए पर आ जायेंगे और रोजगार शुदा लोगों को बेरोजगार होना पड़ेगा | भारतीय उपभोक्ताओं के हितों पर भी विपरीत असर पड़ेगा क्योंकि विदेशी भीमकाय कंपनियां पूरी तरह लूटमार के नीतियों के तहत पहले बाजार पर नियंत्रण करने के लिये कीमतों को नीचे रखकर ग्राहकों को लुभाएंगी और बाद में स्थानीय खुदरा व्यापारियों को बाजार से खदेड़ने के बाद एकाधिकार कायम करके मनमानी कीमतों को भारतीय उपभोक्ताओं पर थोपेंगी | स्थानीय मेंन्यूफेक्चरर्स , विशेषकर छोटी औद्योगिक इकाईयां धीरे धीरे बाजार से बाहर हो जायेंगी | संगठित बड़ी विदेशी कंपनियों के प्रवेश का दुष्प्रभाव देश के आर्थिक स्थिति पर भी पड़ेगा और सधन(Haves) और निर्धन(Have nots) के बीच के खाई बढ़ेगी | स्थायी समिती के इतने स्पष्ट और प्रबल विरोध के बाद भी सरकार खुदरा में विदेशी निवेश क्यों लाना चाहती है , इसके जबाब में सरकार के पास भी केवल परीकथाएं ही हैं |


सप्लाई चेन , कोल्ड स्टोरेज , सबका निर्माण देश में ही हो सकता है , बशर्ते सरकार खुदरा क्षेत्र में कुछ निवेश करे और और पिछले दो दशकों में करों में अनाप शनाप छूटें लेकर सरकार के मदद से अपनी परिसंपत्तियों में इजाफा करने वाले और पिछले दो सालों में दो लाख करोड़ रुपये का पैकेज लेकर , धेला भर फायदा भी उपभोक्ताओं को नहीं देने वाले , भारतीय उद्यमी अपने निवेश के दिशा बदलें और विदेशों में संपत्तियों के खरीदी के बजाय देश में निवेश करें | खुदरा में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की वकालत करने वाले पहले इसकी पड़ताल करें कि क्यों इन उद्धारकर्ताओं के रहते हुए भी अमरीका और यूरोपीय देशों में महँगाई बढ़ रही है और वहाँ के किसानों को खरबों रुपये के सबसीडी उन देशों की सरकारों को देनी पड़ रही है |


हमारे देश का खुदरा व्यापार समाज के साथ एकरस है | इसको धक्का लगाने का मतलब , देश के 80 करोड़ लोगों को धक्का लगना है | यह परिकथा का सुखद हिस्सा है कि किसानों और डाईनिंग टेबिल के बीच से बिचौलिए हट जाने से उपभोक्ताओं को सामान सस्ते में मिलेगा | पर, एकबार आपूर्ति श्रंखला पर पूरी तरह से कब्जा हो जाने के बाद बिलाशक कारपोरेट खुदरा स्वयं सबसे बड़ा बिचौलिया बन जायेगा | देश की जनता की जरुरत अन्य प्रकार की हैं | क्या कोई बिगबाजार या वालमार्ट , रिक्शा चलाने वाले व्यक्ति को अलसुबह दुकान खोलकर दो या तीन रुपये की शक्कर और चाय की पत्ती देगा ताकि उसका पूरा परिवार काली चाय पी सके ? क्या , एक मध्यमवर्गीय आदमी को ये भीमकाय रिटेलर्स बेटी की शादी के लिये हजारों रुपये के कपड़े , बरतन , जेवर और अन्य सामान उधार देंगे ताकि पहले वह अपनी बेटी का ब्याह करवा ले और बाद में उसका पैसा धीरे धीरे किश्तों में चुका दे ? ऐसे अनेकों और प्रश्न हैं , जिनका जबाब बड़ा न है | जिस देश में महज 8200 लोगों के पास देश की संपत्ति का 70% हिस्सा हो , जहां की 70% जनता आज भी गाँवों में रहती हो , जहां 78% लोग 20 रुपये से कम पर गुजारा करते हों , वहाँ खुलने वाले भीमकाय रिटेल स्टोर सम्पत्तिवानों की तृष्णा पूरी करने के साधन तो हो सकते हैं , पर समाज की जरुरत पूरी करने के साधन नहीं | सीधी बात है , परिकथाओं से मन बहल सकता है , पेट नहीं भर सकता |


अरुण कान्त शुक्ला

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