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योजना आयोग की गरीबी और असमानता को छुपाने की बेईमान कोशिशें –

दबंग आवाज
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योजना आयोग का गरीबों के बारे में कैसा सोचना है , ये उसकी गरीबी रेखा के साथ बार बार खिलवाड़ करने से पता चलता है | अभी कुछ दिन ही हुए थे जब सर्वोच्च न्यायालय के सामने योजना आयोग ने गरीबी रेखा में सुधार करते हुए कहा था कि शहरी क्षेत्रों में 32 रुपये से कम और ग्रामीण क्षेत्र में 26 रुपये से कम कमाने वालों को गरीबी रेखा से नीचे याने गरीब माना जाएगा | तारीफ़ की बात यह है कि हाल ही में बजट पेश हुआ है और स्वयम सरकार ने माना है कि इस साल सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी ) कम हुआ है और वह भी दो प्रतिशत के लगभग | इसका सीधा अर्थ हुआ कि लोगों की आय में भी कमी आई होगी याने जो पहले गरीबी रेखा से नीचे थे , उनके उपर उठने के पिछले नौ माह में तो कोई चांस नहीं हैं | लेकिन योजना आयोग को लगता है कि जून 2011से आज के मध्य में चीजें इतनी सस्ती हुई है कि अब शहर में 28.65 और ग्रामीण क्षेत्र में 22.42 रुपये कमाने वाला व्यक्ति गरीब नहीं कहा जा सकता | आप सोच सकते हैं कि यह कमाल यूपीए की सरकार और उसका योजना आयोग ही कर सकता है | इस पर ये तुर्रा भी है कि योजना आयोग के अनुसार यूपीए के प्रथम कार्यकाल के दौरान गरीबों की संख्या में बेहद कमी आई है | 2004-05 में जहां लगभग 40.72 करोड़ लोग गरीब थे , वो तादाद चार सालों याने 2009-10 में घटकर 34.47 करोड़ रह गयी है |

पूरे देश में जब भी गरीबों की या लोगों की आय की बात होती है तो अर्जुन सेनगुप्ता कमेटी के द्वारा पेश की गयी रिपोर्ट का हवाला दिया जाता है जिसमें कहा गया था कि देश के लगभग 70% प्रतिशत निवासी आज भी 20 रुपये से कम पर गुजारा करने को मजबूर हैं और ये सब गरीबी रेखा से कोसों नीचे हैं | पर , जनाब मंटोक सिंह एंड पार्टी ने फिर उसी तेंदुलकर कमेटी के मापदंडों का उपयोग करते हुए ये आंकड़े तैयार किये हैं , जिस पर सर्वोच्च न्यायालय ने पहले आपत्ति उठाई थी और योजना आयोग को अपने आकलन में परिवर्तन करना पड़ा था | योजना आयोग का यह भी कहना है कि इन आंकड़ों में लोगों का स्वास्थ्य और शिक्षा पर किया गया खर्च भी शामिल हैं | याने शहर में एक व्यक्ति 28.65 रुपये में और गाँव में 22.42 रुपये में क्रमश: 2200 और 2400 केलोरी वाला भोजन करने के साथ साथ शिक्षा और स्वास्थ्य पर भी खर्चा कर सकता है |

इससे पता चलता है कि योजना आयोग और उसके सदस्यों को देश और देश की जनता के बारे में कितनी कम और खोखली जानकारी है और देश के आम आवाम और योजना आयोग के बीच में कितनी बड़ी खाई है | अपनी आँखों को थोड़ा सा भी खुला रखने वाला व्यक्ति बता सकता है कि देश के जनगण का बहुसंख्यक हिस्सा अपनी अल्प आय में , इस बड़ी हुई महंगाई में किस तरह अपनी गुजर बसर कर रहा है , जो एसी कमरों में बैठकर आंकड़ों के साथ खिलवाड़ करने वाले योजना आयोग के सदस्यों को कभी दिखाई नहीं दे सकता | गरीबी की रेखा महज एक आंकड़ा नहीं होती , लोगों के जीवन के साथ और उनके अच्छे बुरे के साथ इन आंकड़ों की सीधा संबंध होता है | इससे अधिक शर्मनाक क्या होगा कि एक ऐसी संस्था , जिसका अध्यक्ष देश का प्रधानमंत्री हो , देश की जनसंख्या के बहुसंख्यक हिस्से को प्रभावित करने वाली नीति कि साथ ऐसा खिलवाड़ करे |

लोगों के जीवनस्तर को मापने वाले अनुमानों को इतने नीचे ले जाने के बाद भी योजना आयोग के लिए ये छिपाना संभव नहीं हो पाया कि हमारे देश की जनता का बहुत बड़ा हिस्सा गरीबी रेखा से नीचे ही गुजर बसर करता है | उत्तरप्रदेश , झारखंड , मध्यप्रदेश और उड़ीसा में गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या यदि 37 से 39 प्रतिशत के बीच है तो बिहार , छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में यह 50 प्रतिशत है | देश के उत्तर पूर्व के राज्यों में एक लंबे समय से केन्द्र की सरकारों के खिलाफ असंतोष चला आ रहा है | योजना आयोग की रिपोर्ट कहती है कि इन राज्यों में गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या में वृद्धि हुई है | यूपीए सरकार की समावेशी विकास के दावों की पोल इससे खुल जाती है और यूपीए के ऊपर लगने वाले ये आरोप प्रमाणित होते हैं कि उसकी उदारवादी नीतियों के परिणाम स्वरूप देश में अमीर और अमीर हो रहे हैं और गरीब और गरीब | इतना ही नहीं अमीर और गरीब के बीच की खाई भी दिन प्रतिदिन चौड़ी ही हो रही है |

बेहतर होता कि योजना आयोग गरीबी रेखा के आंकड़े तय करने के पहले हाल ही में हुई जनसंख्या गणना के दौरान जुटाए गए तथ्यों पर बारीकी से गौर कर लेता जिसमें विभिन्न पहलुओं के आधार पर देश में गरीबी की संख्या बताई गयी है | जनगणना के आंकड़ों के अनुसार भारत के 24.6 करोड़ परिवारों में से केवल 29 प्रतिशत के घर कांक्रीट की छत वाले हैं | केवल 32 प्रतिशत परिवार ऐसे हैं जिनकी पहुँच सार्वजनिक निकायों (नलों) से पूर्ती होने वाले पानी तक है | केवल 47 प्रतिशत के घरों में शौचालय की व्यवस्था है | 49.8 प्रतिशत शौच के लिए खुले एकांत में जाते हैं | 49 प्रतिशत परिवार अभी भी पकाने के लिए जलाऊ लकड़ी का ही इस्तेमाल करते हैं और 17 प्रतिशत गोबर के कंडों या खेती के अवशेष पर निर्भर करते हैं | 39 प्रतिशत घरों में किचिन जैसी कोई पृथक जगह नहीं है |

देश में गरीबी , वो चाहे शहर हों या गाँव या आदिवासी इलाके सभी ओर बिखरी पड़ी है | वो रेलवे स्टेशन , बस स्टेंड हो या किसी नुक्कड़ पर जमा कचरे का ढेर , गरीबी आपको दिख जायेगी | वो काम की तलाश में अपने घर गाँव को छोड़कर जाने वाले लोग हों या चावड़ी पर बैठे मजदूर , गरीबी को देखने कहीं दूर जाने की आवश्यकता नहीं है | वो जहरीली शराब से मरने वाले लोग हों या फिर रेलवे स्टेशन या बस स्टेंड पर साईकिल पंचर सुधारने का सालुशन चाटकर नशा करने वाले बच्चे , गरीबी हमारे आसपास ही है | बस , उसे देखने की नीयत होनी चाहिए और उसे दूर या कम से कम , कम करने की ईमानदारी भरी कोशिश करने की मंशा | अफसोस कि वो मंशा न तो सरकार में दिखाई देती है और न ही योजना आयोग की कसरत में | जो दिखाई दे रहा है , वह है , देश के अंदर बढ़ती हुई गरीबी और असमानता को छुपाने की बेईमान कोशिशें |

अरुण कान्त शुक्ला

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