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मनमोहनसिंह पूडल तो हैं, पर किसके?

दबंग आवाज
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मनमोहनसिंह पूडल तो हैं, पर किसके?

ब्रिटिश अखबार द इंडिपेंडेंट ने प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह को काँग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का पूडल ठहराकर जाने अनजाने भाजपा और संघ परिवार को मदद पहुंचाने का काम किया है। यह वो आरोप है, जिसे भाजपा या संघ परिवार प्रधानमंत्री पर 2004 से लगातार लगाता रहा है। सोनिया गांधी का विदेशी मूल का मुद्दा इस बहाने कूटनीतिक तरीके से ज़िंदा रखने में उनको मदद मिलती है, जो उनकी साम्प्रदायिक राजनीति को सूट करता है। यही कारण है कि जब टाईम ने उनको अंडरएचीवर बताया तो भाजपा बहुत खुश हो गयी और अब जब द इंडिपेंडेंट ने उनको पूगल, पपेट या अंडर एचीवर, वह जो कुछ भी हो, बताया तो वह फिर खुश हो गयी।

प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह की छवि अपने प्रधानमंत्रित्व काल के दूसरे दौर में और विशेषकर पिछले दो वर्षों में ऐसे राजनीतिक नेता की बन गयी है जो न केवल राजनीतिक तौर पर अपरिपक्व, असफल, और अनिर्णायक है बल्कि पूरी सरकार और कांग्रेस में आलोचना के लिए एक साफ्ट टारगेट के रूप में अपने आलोचकों के लिए हमेशा उपलब्ध भी है। 1991 से 1995 के मध्य नरसिम्हाराव सरकार में वित्तमंत्री रहते हुए, जब भारत की अर्थव्यवस्था के दरवाजे उन्होंने विदेशी पूंजी के लिए खोले थे और वर्ल्डबैंक, आईएमएफ और उस समय के गाट और आज के विश्व व्यापार संगठन के निर्देशों पर सामाजिक उद्देश्यों के उपर खर्चों में कटौती, सार्वजनिक क्षेत्रों को निजी हाथों में बेचने तथा देशी विदेशी पूंजी को सरकार से अबाध और अपार सहायता देने की जो मुहीम उन्होंने चलाई थी, उसके चलते जितनी आलोचना उनकी हुई थी, आज हो रही आलोचना उसके सामने मात्रात्मक रूप से बहुत कम है पर प्रकृति (गुणात्मक रूप में) में निकृष्ट और स्तरहीन होने के चलते अधिक चुभने वाली है, इसलिए ज्यादा लग रही है।

आलोचना की निकृष्टता में ही वह राज छिपा है, जो न केवल आलोचना करने वालों के मंसूबों को बल्कि भारत में उस आलोचना की हाँ में हाँ मिलाने वालों और उस पर खुश होने वालों के मंसूबों के राज खोलता है। आलोचना का स्तर आज निकृष्ट इसलिए है कि वह मनमोहनसिंह के उन मित्रों के द्वारा की जा रही है, जिनके कहने पर प्रधानमंत्री ने 1991 से 1995 के मध्य भूमंडलीकरण और उदारवाद की नीतियों को भारत में लागू किया था। आज जब मनमोहनसिंह बचे हुए आर्थिक सुधारों को लागू नहीं कर पा रहे हैं तो उनके मित्र मित्रता को ताक पर रखकर उनकी आलोचना में जुट गए हैं।

भारत में आज जो विपक्ष नजर आ रहा है, उसे हम दो भागों में बाँट सकते हैं। पहला, वामपंथी विपक्ष, जो 1991 से ही भूमंडलीकरण और उदारवाद की नीतियों के खिलाफ मोर्चा खोले हुए है। इसका विरोध सैद्धांतिक है और वह मानता है कि भ्रष्टचार, आर्थिक मंदी, महंगाई आदि पूंजीवाद की ढांचागत मुश्किलें हैं, और इसी आधार पर सरकार के कदमों का विरोध वह करता है। दूसरा, भाजपाई विपक्ष, जिसे चलना उसी रास्ते पर है, जिस पर मनमोहनसिंह ने वित्तमंत्री रहते हुए देश को डाला है, उसका विरोध सत्ता में बैठी पार्टी की राजनीति, उसके प्रोग्राम और उसकी नीतियों या गरीबी, भुखमरी, मजदूरों की कारखानों में लूट आदि जैसे सब से बुनियादी मसलों या पूंजीवाद की ढाचांगत कमजोरियों से नहीं है। वह बहुत सुविधाजनक तरीके से सारा विरोध सत्ता में मौजूद पार्टी और उसके कुछ व्यक्तियों के खिलाफ खड़ा करके व्यवस्था को जैसे का तैसा बनाए रखने की नीति पर चलती है। यही कारण है कि 1998 से 2004 के मध्य सत्ता में रहने के बावजूद भाजपा देश की सामाजिक और आर्थिक नीतियों में कोई भी बदलाव तो ला ही नहीं पाई, उलटे देश को साम्प्रदायिकता की आंच में और तपना पड़ा।

यही कारण है कि जब टाईम या द इंडिपेंडेंट मनमोहनसिंह को कम सफल, सोनिया की कठपुतली या पूडल कहते हैं तो भाजपा के चेहरे पर मुस्कान आ जाती है। देश का गौरव या गर्व करने की उसकी सारी बातें हवा हो जाती हैं। पर, वही भाजपा, जब ओबामा भारत को आर्थिक सुधारों को तेज करने की हिदायत देते हैं तो मुखर हो जाती है। क्यों, क्योंकि, मनमोहन को टारगेट करके टाईम या द इंडिपेंडेंट का हमला उसकी राजनीति को सूट करता है, लेकिन ओबामा की बात उसकी देश प्रेम की छवि पर डायरेक्ट चोट करती है, जो उसके लिए राजनीतिक रूप से नुकसानदायक है। उस समय भी वह आर्थिक सुधारों के लिए डाले जा रहे दबाव का विरोध नहीं करती, बल्कि, यह कहती है कि ऐसा तभी होगा, जब भारत ऐसा चाहेगा।

मनमोहनसिंह , राष्ट्र के रक्षक हैं या सोनिया गांधी के पूडल हैं? या, मनमोहनसिंह, अभी तक के सबसे ज्यादा लाचार, असमर्थ और रिमोट कंट्रोल से याने सोनिया गांधी के निर्देशों पर चलने वाले प्रधानमंत्री हैं या उनमें त्वरित और विवेकपूर्ण निर्णय लेने की क्षमता नहीं है। ये वे आरोप हैं, जो भूमंडलीकरण और उदारवाद के समर्थक उनके विरोधी तब से लगा रहे हैं, जबसे मनमोहनसिंह प्रधानमंत्री बने हैं। आज वही आरोप एक समय मनमोहनसिंह के कसीदे पढ़ने वाली मेगजीन टाईम, मनामोहनसिंह की पीठ थपथपाने वाले ओबामा और द इंडिपेंडेंट लगा रहा है। मकसद एक ही है, भारत की अर्थव्यवस्था को जितनी जल्दी हो देशी विदेशी कॉरपोरेट के हवाले कर दो। अमेरिका और यूरोप को भारत वासियों की कीमत पर अपनी हालत सुधारने दो याने आर्थिक सुधार भारत में करो और हालत उनकी सुधरे| ऐसे ही आरोप भारत के कॉरपोरेट भी लगा रहे हैं। मनमोहनसिंह वो सब करना चाहते हैं, लेकिन देश की राजनीतिक परिस्थितियाँ उनके अनुकूल नहीं हैं। भाजपा, जिसे सत्ता में अगर आयी तो वही सब करना है, विरोध में इसलिए है कि उसे 2014 का आम चुनाव नजर आ रहा है। एक असफल प्रधानमंत्री और बदनाम यूपीए उसे मुफीद बैठते हैं। मनमोहन सिंह को सोनिया गांधी का पूडल कहने का मतलब है कि वो ज्यादा संगीन सच्चाई, जो देश के लोगों के सामने आना चाहिये, उसे दबाना।

इतिहास मात्र घटनाओं का अभिलेख नहीं होता बल्कि घटनाओं के परिणामों की विवेचना और समालोचना का रिकार्ड भी होता है। जब कभी मनमोहनसिंह के ऊपर लगने वाले इन आरोपों की विवेचना होगी, तब इतिहास में यह भी दर्ज होगा कि भारत में मनमोहनसिंह ने वर्ष 1991 में नवउदारवाद की जिन नीतियों के रास्ते पर देश को डाला, उसके बाद आने वाली सभी सरकारें, उन्हीं नीतियों पर चलीं, जो अमेरिका परस्त थीं और जिन पर चलकर देश की जनसंख्या का एक छोटा हिस्सा तो संपन्न हुआ लेकिन बहुसंख्यक हिस्सा बदहाली और भुखमरी को प्राप्त हुआ। इतिहास में यह भी दर्ज होगा कि 1991 के बाद के दो दशकों में भारत में शायद ही कोई ऐसा राजनीतिक दल रहा हो, जो सत्ता में न आया हो या जिसने सत्ता में मौजूद दलों को समर्थन न दिया हो। इसलिए जब भी मनमोहनसिंह के ऊपर सोनियानिष्ठ होने के आरोप लगाए जाते हैं तो असली उद्देश्य मनमोहनसिंह के अमेरिका परस्त या वर्ल्ड बेंक परस्त चेहरे को छिपाना ही होता है। क्योंकि, उन्हें लगता है कि यदि कल वे सत्ता में आये तो उन्हें उसी रास्ते पर चलना है, इसलिए भूमंडलीकरण और उदारवाद को बदनाम करने से अच्छा है, व्यक्तियों को बदनाम करो। यदि मनमोहनसिंह पूडल हैं तो सोनिया के नहीं अमेरिका, वर्ल्ड बैंक और आईएमएफ के पूडल हैं और पिछले दो दशकों में सत्ता का सुख प्राप्त कर चुके सभी दल इनके पूडल रह चुके हैं, यहाँ तक कि देश का मीडिया भी, विशेषकर टीव्ही मीडिया और बड़े अंग्रेजी दां अखबार भी इनके पूडल हैं|

अरुण कान्त शुक्ला

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