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आसां नहीं शहीद होना ..

दबंग आवाज
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आज भगत सिंह का जन्म दिवस है| बीते हुए कल देश के प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह का जन्म दिन था। यह विडम्बना नहीं चुने हुए रास्ते पर चलने की अवश्यंभावी नियति है कि न तो मीडिया में और न ही इंटरनेट पर मनमोहन सिंह को जन्म दिवस की बधाई देते हुए कोई दिखाई दिया, सिवाय एक अपवाद के, वह भी फेसबुक पर। अखबारों में कोई उल्लेख अगर मिला भी तो वह प्रशंसा या बधाई का न होकर, मनमोहन सिंह के पूरे कार्यकाल का आलोचनात्मक विवरण ही था। जबकि, पिछले दो दिनों से अखबारों (निश्चित रूप से हिन्दी) के सम्पादकीय पृष्ठ उन लेखों से भरे हुए हैं, जो भगत सिंह की सोच और देश के लोगों के प्रति उनकी चाहत को न केवल प्रदर्शित करने के लिए लिखे गए हैं, बल्कि उनका उद्देश्य आज की परिस्थितियों में लोगों के अंदर उस क्रांतिकारी जागरूकता को पैदा करना है, जो भगत सिंह के अंदर बलवती थी और जिसने उन्हें (भगतसिंह को) देश के लिए उस आयु में बलिदान करने के लिए प्रेरित किया, आज जिस आयु में बच्चे अपना शिक्षण भी पूरा नहीं कर पाते हैं।

मैं चंद (पांच) महीनों बाद अपने जीवन के 63 साल पूरे करूँगा। लगभग 39 वर्ष की मेरी वेतन गुलामी में, (मार्क्स के शब्दों में, वैसे मैं अभी भी स्वयं को वेतन गुलाम ही समझता हूँ, क्योंकि मुझे अपर्याप्त ही सही, पर पेंशन प्राप्त होती है) मैंने लगभग 34 वर्ष एक ट्रेड युनियन कार्यकर्ता के रूप में बिताये हैं। अपने ट्रेड युनियन जीवन में, मैं अक्सर अपने साथियों को मोटिवेट करने के लिए कहा करता था, रोज सर कटाओ, रोज शहीद कहलाओ। इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत में ट्रेड युनियन में काम करना कोई आसान काम नहीं है, विशेषकर, नवउदारवादी नीतियों के आक्रमण के बाद उन ट्रेड युनियन वर्करों के लिए तो ये एक जटिल और दुरूह कार्य था, जो वाकई सोचते थे कि नवउदारवादी नीतियां देश के किसानों, असंगठित मजदूरों और स्वरोजगारियों के लिए किसी अभिशाप से कम नहीं हैं और ये सब मिलाकर देश के 80% हिस्से से कम नहीं है। उसके बावजूद, आज मुझे लगता है कि आजाद देश के ट्रेड युनियन आंदोलन और वह भी विशेषकर सार्वजनिक क्षेत्र के ट्रेड युनियन में यह कहना कि  “रोज सर कटाओ और रोज शहीद कहलाओ”, भगत सिंह जैसे शहीदों के साथ किया गया अन्याय है। देश के ट्रेड युनियन और विशेषकर वामपंथी ट्रेड यूनियन आंदोलन और वामपंथी राजनीतिक आंदोलन में भगतसिंह सिंह के साथ यह अन्याय रोज किया जाता है।

जब में सेवानिवृत हुआ, अपने एम्प्लायर से सेवानिवृति लाभों के रूप में काफी धन भी मुझे मिला। त्याग थे, पारिवारिक जीवन में खलल, अपने अनेक शौकों की तिलांजलि, कुछ सस्पेंशन, कुछ लेटर्स, मगर, आजाद देश के ट्रेड युनियन आंदोलन और ब्रिटिश साम्राज्यवाद से लड़ते हुए शहीद होना, दोनों में कोई तुलना हो ही नहीं सकती। मैं ऐसे ट्रेड युनियन नेताओं के बारे में भी सुना है, जिन्होंने सेवानिवृति के बाद लाखों रुपयों की थैली इसलिए ली है कि उन्होंने ट्रेड युनियन में काम करते हुए अनेक त्याग किये हैं और कुर्बानियां दी हैं।

भगत सिंह को शहीद, उनके जोश और देश के लिए मर मिटने वाले जज्बे ने नहीं बनाया। भगत सिंह को शहीद बनाया इन्कलाब के साथ खुद को एकाकार करने वाले जज्बे ने। प्रसिद्द क्रांतिकारी मन्मथनाथ गुप्त ने अपनी किताब “भगत सिंह और उनका युग” में फांसी के ठीक पहले लिखे गए भगत सिंह के एक पत्र का उल्लेख किया है, जो उन्होंने अपने साथियों को लिखा था। पत्र में भगत सिंह ने मृत्यु के ठीक पहले ज़िंदा रहने की अपनी ख्वाहिश को किस जज्बे के साथ बयां किया था, वह इन्कलाब के बारे में उनकी उत्कृष धारणा को दिखाता है। पत्र इस प्रकार हैः

“ज़िंदा रहने की ख्वाईश कुदरती तौर पर मुझमें भी होनी चाहिये। मैं इसे छिपाना नहीं चाहता, लेकिन मेरा ज़िंदा रहना एक मशरूत (एक शर्त पर) है। मैं कैद होकर या पाबन्द होकर ज़िंदा रहना नहीं चाहता।

मेरा नाम हिन्दुस्तानी इन्कलाब का निशान बन चुका है और इन्कलाब पसंद पार्टी के आदर्शों और बलिदानों ने मुझे बहुत ऊंचा कर दिया है। इतना ऊंचा कि ज़िंदा रहने की सूरत में इससे ऊंचा मैं हरगिज नहीं हो सकता।”

आज, जब, विश्व पूंजीवाद नवउदारवाद का चोला पहनकर नए सिरे से दुनिया की दबी कुचली आबादी और मेहनतकशों पर आमादा है और ट्रेड युनियन में काम करने वालों और वामपंथ में काम करने वालों से वक्त की गुजारिश है कि वे अपनी सम्प्पूर्ण उत्सर्गता के साथ इस आक्रमण के खिलाफ खड़े हों, हम सुविधाभोगी ट्रेडयूनियन आंदोलन और सुविधाभोगी वामपंथी राजनीति से दो चार हो रहे हैं। वे सब, जो पूंजीवाद के फेंके टुकड़ों के अभ्यस्त हो गए हैं, आज, भगत सिंह को याद करेंगे, पर, वो विचार, जो भगत सिंह को शहीद बनाता है.. कहाँ से आएगा?

अरुण कान्त शुक्ला,

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