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बाजार महिलाओं का दुश्मन है ..

दबंग आवाज
दबंग आवाज
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महिलाओं के बारे में शहरों से लेकर गाँव तक एक बात अक्सर चटखारे लेकर कही जाती है कि वे सबसे ज्यादा खुश तब होती हैं, जब वे बाजार में होती हैं याने जब वे खरीददारी कर रही होती हैं। गहनों, कपड़ों, बरतनों, यहाँ तक कि किराना की दुकानों पर भी हमें खरीददारों की भीड़ में महिलाओं की संख्या ही हमेशा अधिक नजर आयेगी। पर, खरीददारी करते समय शायद ही कोई महिला इस बात की चिंता करती होगी की बाजार का उसके प्रति रवैय्या क्या है और आज जिन सामाजिक प्रताड़नाओं से वह दो चार हो रही है, बाजार उनके लिए कितना जिम्मेदार है?
विश्व बाजार व्यवस्था में महिलाओं का महत्त्व एक सबसे बड़े खरीददार के रूप में नहीं उपयोगी माल के रूप में आंका जाता है और सभी यह जानते हैं की बाजार माल से ही फलता फूलता है। बाजार की इस व्यवस्था में महिलाओं का उपयोग मुनाफ़ा बढ़ाने के अनेक उपायों में से एक ऐसा उपाय है, जो बाजार के अनुकूल बैठता है। बाजार के सारे प्रयास इस सोच के अनुरूप समाज और संस्कृति के निर्माण को प्रोत्साहित करने के होते हैं| महिलाओं के प्रति समाज (महिलाओं सहित) का रुख और व्यवहार बड़ी हद तक बाजार की इस सोच का हिस्सा होता है।
पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में वैश्वीकरण और नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के जिस दौर से आज विश्व समाज गुजर रहा है और दुनिया के तमाम देशों की सरकारें अपने अधिकारों और कर्तव्यों को जिस तरह से बाजार के हवाले करती जा रही हैं, उसका नतीजा यह है की एक उपभोगन्मुखी समाज का निर्माण हो रहा है, जिसमें बाजार है, माल है, उपभोग की अति महत्वाकांक्षा है और उपभोक्ता हैं, पर, श्रम और श्रमिक का कहीं कोई महत्त्व तो दूर, उल्लेख भी नहीं होता है। श्रम की इस अवेहलना का विपरीत प्रभाव महिलाओं पर दुर्दशा की हद तक पड़ा है, जो मूलतः श्रमजीवी होती हैं, चाहे वे प्रत्यक्ष श्रम याने वैतनिक श्रम या स्वरोजगार से जुड़ी हों या नहीं।नई नीतियों के फलस्वरूप अनेक ऐसे छोटे और घरेलु उद्योग धंधे नष्ट हो गए जो बड़ी संख्या में महिलाओं को पारिवारिक आय बढ़ाने में मदद करते थे। मुक्त व्यापार व्यवस्था ने अनेक परंपरागत आजीविका के साधनों को बर्बाद कर दिया। सरकारी क्षेत्रों में रोजगार मिलना बंद होने और निजी क्षेत्रों में रोजगार संकुचन की वजह से परिवारों की आय में कमी होने लगी। आर्थिक नीतियों में आये इन परिवर्तनों के चलते परिवार की आय में योगदान देने की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी महिलाओं के कंधे पर आई है। आज पहले के किसी भी दौर से बहुत ज्यादा संख्या में महिलाएं स्वेच्छा से या मजबूरी में, जैसे भी हो, पर, काम की तलाश में घर से निकलने के लिए मजबूर हुई हैं। तकनीकी विकास ने रोजगार के ऐसे अवसरों को पैदा किया है, जिनको इस्तेमाल करने के लिए विस्थापित होना जरुरी हो गया है। लगभग चार माह पूर्व आये एक वैश्विक सर्वे के मुताबिक़ आने वाले दस वर्षों में विश्व में लगभग एक अरब महिलाएं श्रमिक के रूप में बाजार से जुड़ेंगी। जिन आर्थिक नीतियों के दबाव के फलस्वरूप उपजी आर्थिक तंगी को दूर करने वे घर से विस्थापित होंगी, वे ही आर्थिक नीतियाँ समाज में ऐसी परिस्थितियों का निर्माण भी कर रही हैं, जो महिलाओं के लिए संकट स्वरूप हैं।
सामाजिक जीवन के लगभग प्रत्येक पहलू को बाजार के हवाले करते जाने का नतीजा यह हो रहा है कि बड़े बड़े कारपोरेट्स और कंपनियां ज्यादा से ज्यादा ग्राहकों को अपने उत्पादों की तरफ खींचने की होड़ में कुत्सित विज्ञापनों का सहारा लेकर लोगों की रुची और प्रवृति दोनों को ही बिगाड़ने पर तुल गए हैं। इस पूरी प्रक्रिया में माल बेचने के लिए धूर्तता पूर्वक महिलाओं को वस्तु के रूप में पेश/इस्तेमाल किया जा रहा है। बाजार की महिलाओं के साथ यह दोहरी संबद्धता, माल बेचने के लिए महिलाओं का वस्तु के रूप में इस्तेमाल और माल की खपत के लिए तैयार खड़ा विशाल बाजार, एक ऐसी परिस्थिति और प्रक्रिया को निर्मित करता है,  जहां स्वयं महिलाएं भी अधिकाधिक आय अर्जन की लालच में स्वयं के वस्तुकरण के लिए लालायित हो जाती हैं। मीडिया भी चूंकि उसी बाजार का एक अस्त्र है, वो भी सौन्दर्य स्पर्धाओं, फेशन परेडों, सफल माडलों की कहानियों जैसे कार्यक्रमों के जरिये समाज में कुत्सित अभिरुचियों को बढ़ाने में लगा रहता है। इस कार्य में अधेड़ और वृद्ध महिलाओं को भी वस्तु के रूप में पेश करने में बाजार को कोई हिचक नहीं होती, क्योंकि बाजार के लिए वे वस्तु और खरीददार दोनों होती हैं।
बाजार के इस रुख से समाज में महिलाओं के प्रति और उनकी सामाजिक स्थिति के प्रति एक अधोगामी और अवांछित भावना पैदा होती है, जो महिलाओं के दमन और उत्पीड़न के लिए जिम्मेदार है।
अरुण कान्त शुक्ला

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